Feb 12, 2012

तोताराम के तर्क - साहब बहादुर नाराज़ हैं

हम अखबार पढ़ने में व्यस्त थे कि तोताराम ने आकर झिंझोड़ा- किस दुनिया में खोया है, तुझे पता नहीं साहब बहादुर नाराज़ हैं ।

हमने कहा- कौन साहब बहादुर? अब कोई भी अपना साहब नहीं है भगवान के अलावा । अब हम किसी के नौकर नहीं हैं जो किसी साहब की नाराज़गी की चिंता करें । जो असली साहब है वह सब कुछ जानता है । वह न तो किसी जाति को ध्यान में रखकर फैसला देता है और न किसी पार्टी का पक्ष लेता है । उसका कोई फैसला गलत नहीं होता । उसके घर देर हो सकती है मगर अंधेर नहीं है । वह अंतर्यामी है । सब कुछ जानता है । और जहाँ तक अपनी बात है तो हम जानते हैं कि हम कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं । हमारी बेलेंसशीट में कोई सस्पेंस अकाउंट नहीं है ।

तोताराम ने हमें रोका- अपनी ही कहता जाएगा या मेरी भी सुनेगा । मैं तुम्हारे किसी साहब की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं तो अपने गौरांग महाप्रभु अंग्रेज साहब बहादुर की बात कर रहा हूँ जिन्होंने हमें सभ्य और शिक्षित बनाया ।

हमने कहा- अरे, उन्हें तो विदा हुए साठ से भी ज्यादा वर्ष हो चुके हैं । अब हम खुद अपने साहब बहादुर हैं । अब हम एक सर्व-प्रभुता संपन्न राष्ट्र हैं ।

तोताराम ने हमारी बात काटने के लिए तर्कों की झड़ी लगा दी- कैसा प्रभुता-संपन्न राष्ट्र? क्या है तुम्हारी राष्ट्रभाषा? एक बार संयुक्त राष्ट्र संघ में अटल जी के भाषण के अलावा कहाँ, कब, किस देश में बोली तुम्हारे किसी नेता ने तुम्हारे देश की कोई भाषा? तुम्हारे देश में पैसा रखने लायक कोई भरोसे का बैंक तक नहीं है । लोगों को मज़बूरी में अपना पैसा स्विस बैंक में रखना पड़ता है । आजादी के बाद तुम्हें कोई ढंग का भारतीय मिला गवर्नर बनाने के लिए? यह तो बेचारे माउंटबेटन ने काम चला दिया नहीं तो पता नहीं, कितने दिन तुम्हें बिना गवर्नर के रहना पड़ता । अब भी तुम ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक 'कामन वेल्थ' से मुक्त नहीं हो सके । जब भी सम्मलेन होता है तो बीच में प्रिंसिपल की तरह बैठी होती है महारानी और अगल-बगल मास्टर की तरह खड़े होते हैं प्रधान मंत्री जी ।

हमने कहा- तोताराम, ये सब नीतिगत बातें हैं इनके बारे में हम क्या कह सकते हैं । वैसे हमें तो तुम्हारे साहब बहादुर के नाराज होने का कोई कारण नज़र नहीं आता । अब भी ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी सबसे अधिक बिकती है । होने को तो भारतीयों द्वारा संपादित की हुई डिक्शनरियाँ भी हैं लेकिन हमने उन्हें कभी डिक्शनरी माना ही नहीं । भले ही १८५७ की क्रांति को ग़दर कहे, भगत सिंह को आतंकवादी बताए, भारतीय भाषाओँ को वर्नाक्यूलर ( असभ्य लोगों की बोली ) बताए, वेदों को चरवाहों के गीत बताए मगर इन्साक्लोपीडिया तो ब्रिटानिका का ही खरीदते हैं ना? अब भी यहाँ शेक्सपियर कालिदास से बड़े नाटककार माने जाते हैं । भले ही अमरीका ने अपनी इंग्लिश बना ली हो मगर हम अब भी क्वींस इंग्लिश के दीवाने हैं । अब भी ऑक्सफोर्ड के पढ़े लोग ही हमारे भाग्य विधाता हैं ।

अंग्रेजों ने दुनिया के बहुत से देशों में राज किया और वहाँ के लोगों की भाषा को धक्का मारकर अंग्रेजी स्थापित किया जिससे उनका उद्धार हो सके । दुनिया के किसी भी देश ने इण्डिया की तरह अंग्रेजी को सम्मान नहीं दिया । क्या दुनिया के किसी देश में अंग्रेजी-माता का मंदिर है? । जब कि दलितों के उद्धारकर्त्ता, दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के चन्द्रभान जी ने अंग्रेजी का मंदिर बनवाया है ।

अब भी हमारे देश का उन्हीं साहब बहादुर का दिया नाम 'इण्डिया' चल रहा है । ब्रिटेन से ज्यादा चर्च इस देश में हैं । भले ही वैष्णो देवी या तिरुपति के मंदिर का आडिट होता हो मगर हमने कभी किसी पादरी या फादर से यह नहीं पूछा कि प्रभु, आपके पास वेटिकन से कितना पैसा आता है और आप उसे कैसे खर्च करते हैं? क्या गोरे देशों में कोई दुखी या बीमार और अशिक्षित नहीं है जो आप इस देश के सुदूर इलाकों में आदिवासियों की सेवा करने आते-जाते हैं? कभी नहीं पूछा कि थोड़े दिन बाद ही वे लोग भले ही विकसित हों या न हों मगर ईसाई क्यों बन जाते हैं । कभी जाँच नहीं कि इस देश में लाखों चर्च हैं जिनमें से कितनों के पास ज़मीन का पट्टा है । किस गोरे देश में हिंदुओं को विशेष आर्थिक पैकेज दिया गया है बल्कि उनका तो तरह-तरह से अपमान होता है । नार्वे में कहते हैं तुम्हें अपने बच्चों को खाना खिलाना तक नहीं आता । हम बच्चों को अपने पास रखकर खाना खाना सिखाएँगे । और हम उन्हें विशेष आर्थिक पैकेज देते हैं । साहब बहादुर जैसा गोरा बनने के लिए हजारों करोड़ की क्रीम हम खरीदते हैं । हमने अब तक अपना 'लीवर' तक विकसित नहीं किया । उन्हीं के 'लीवर' से काम चला रहे हैं । पहले वह 'लीवर' 'लिमिटेड' था अब अनलिमिटेड हो गया है ।

हमें तो साहब बहादुर के नाराज़ होने का कोई कारण नज़र नहीं आता । फिर भी यदि तुझे कोई और गुप्त कारण मालूम हो तो बता? मनमोहन जी से अपना चिट्ठी-पत्री का रिश्ता है और वे भी अध्यापक रहे हैं सो डिपार्टमेंट के आदमी भी हैं । कोई हो सकने वाली बात होगी तो मना नहीं करेंगे । कुछ भी हो अंग्रेज अपने पुराने राजा रहे हैं, सलाम के लिए क्यों मियाँ जी को नाराज़ किया जाए ।

तोताराम ने कहा- बात जितनी छोटी तू समझ रहा है उतनी छोटी है नहीं । हुआ यह कि जब ओबामा जी आए थे तब उन्हीं के आसपास फ्रांस, चीन, रूस के बड़े नेताओं के साथ-साथ ब्रिटेन के प्रधान मंत्री जी भी आए थे तो क्या वे मनमोहन जी की दावत खाने के लिए आए थे क्या? वे सब अपना हथियारों का धंधा करने के लिए आए थे । अब ब्रिटेन, फ़्रांस के पास उपनिवेश तो रहे नहीं । अब ले देकर हथियारों का धंधा ही तो बचा है जिसके बल पर अपनी अर्थव्यवस्था को टिकाए हुए हैं ।

भारत से विमानों के एक बड़े सौदे पर सब की आँख थी । अब १ फरवरी २०१२ को उसे फ़्रांस ले भागा तो दुःख तो होगा ही । भले ही फ़्रांस और ब्रिटेन गोरे लोगों के देश हैं और द्वितीय विश्व के मित्र राष्ट्र हैं मगर भाई, धंधा तो धंधा है । ५०४ अरब रुपए का सौदा कोई छोटी-मोटी बात है क्या? इसीलिए अब ब्रिटेन में यह बात उठ रही है कि भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर नहीं है तो अब उसे दी जा रही ब्रिटिश सहायता बंद कर दी जानी चाहिए हालाँकि यह सहायता उतनी सी ही है जितना कि किसी दूकानदार द्वारा ग्राहक को चाय पिलाना । पर इससे नाराज़गी का तो पता चलता ही है ।

तोताराम ने कहा-और अमरीका भी इससे खुश नहीं है ।


हमने कहा- अब उसे क्या हो गया? अभी तो अरबों का परमाणु समझौता किया है । उसे तो भारत में कोल्ड ड्रिंक, पिज्जा और केंटकी चिकन बेच कर ही खुश हो जाना चाहिए । सब कुछ हमारा, खाने पीने वाले भी हमारे उसका तो बस ट्रेडमार्क है और हर साल अरबों की कमाई । अब भारत के बाज़ारों में अमरीका के खिलौने, चिप्स, चोकलेट, किताबें सब आ गए हैं । हमारे लोगों के लिए बचा ही क्या है?


तोताराम ने कहा- भई, तुम मानो या न मानो मगर उसने शक्ति संतुलन के नाम पर पाकिस्तान को एफ-१६ विमान देकर संकेत तो दे ही दिया है ।

हमने कहा- तोताराम, वैसे तो ये देश विश्वशांति की बात करते हैं मगर करते हथियारों का धंधा हैं? ये ही तो देशों को लड़वाते हैं और फिर ये ही उन्हें हथियार बेचते हैं । हथियार कोई खाने के काम तो आते नहीं, मारने के काम ही आते हैं । और फिर ये हथियार भी कोई नए थोड़े ही बेचते हैं । पुराने हथियार फेंकने की बजाय हम जैसे देशों को बेच देते हैं । वरना यदि ये देश चाहें तो कम से कम भारत और पाकिस्तान का झगड़ा तो खत्म करवा ही सकते हैं । इन्हीं के तो बोए हुए हैं ये बीज ।

तोताराम बोला- वाह, अपने ही हाथों कोई अपनी मौत बुलाएगा क्या? यदि हथियार, कोल्ड-ड्रिंक, फास्ट फूड, दारू, सिनेमा, सौंदर्य का धंधा बंद हो गया तो ये तो भूखे मर जाएँगे । लड़ाई-झगड़े के बिना वकील और बीमारियों के बिना डाक्टरों का काम कैसे चलेगा?

हमने कहा- एक से खरीदो तो दूसरा नाराज़, दूसरे से खरीदो तो तीसरा नाराज़, तीसरे से खरीदो तो पहला नाराज़ । अब बता यह कैसे हो सकता है कि भारत इन सभी देशों से हथियार खरीदता रहे । अब जो खरीद रहा है वह भी जाने कितने ज़रूरी कामों की कटौती करके खरीद रहा है । लोगों को खाने को पूरी सी रोटी नहीं हैं और ५०४ अरब रुपए के विमान ख़रीदे जा रहे हैं । और यहीं कोई बस थोड़े है । यह तो अनंत सिलसिला है । इस दुष्चक्र से बचने का क्या उपाय है, तोताराम?

तोताराम ने कहा- उपाय है तो सही, पर पता नहीं मनमोहन जी मानेंगे या नहीं और ये देश भी उतने से सन्तुष्ट होंगे या नहीं?

हमने कहा- फिर भी बता तो सही ।

बोला- देश का रक्षा बजट का पैसा इन देशों को दे दो और भारत की रक्षा की जिम्मेदारी इन्हें सौंप दो । न कोई घोटाला होगा और न बोफोर्स की तरह कोई कमीशन का झंझट ।

हमने कहा- बात तब भी नहीं बनेगी क्योंकि तब ये उस पैसे के लिए आपस में लड़ने लग जाएँगे । पैसे भी जाएँगे और हमारी समस्या ज्यों की त्यों ।

'तो क्या, सी.बी.आई. को जाँच सौंप देंगे या कोई आयोग बैठा देंगे । चलता रहेगा मामला । कम से कम सरकार को तो कोई दोष नहीं देगा' - तोताराम का उत्तर था ।

२-२-२०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

2 comments:

  1. तोताराम का आईडिया कमाल का है, यूँ भी हर तरफ़ आऊटसोर्सिंग का जमाना है:)

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