Feb 19, 2012

माँगन मरण समान है - नवयुग के भिखारी

कबीर जी के गुरु जी ने उन्हें सीख दी थी-
माँगन मरण समान है मत कोई माँगों भीख ।
माँगन से मारना भला यह सत्गुरु की सीख ॥

कबीर जी ने यह सीख मानी और जीवन भर उसे निभाया । कपड़े बुनते रहे और आधी और रूखी खाते रहे । कुछ न बन पाए । ज़िंदगी भर जुलाहे के जुलाहे ही बने रहे । इसलिए उनका बेटा भी जुलाहा ही रहा । कुछ मुख्यमंत्री संत्री बन जाते तो बेटा भी उपमुख्यमंत्री बन जाता । मगर धीरे-धीरे लोगों ने खोज की कि ‘जी, भीख तो भगवान ने भी माँगी थी राजा बलि से और उस चक्कर में अपनी ऊँचाई भी घटानी पड़ी’ । मगर मज़े की यह बात हुई कि भीख मिल जाने पर फिर अपने असली रूप में आ गए । विष्णु भगवान ने यह भीख अपने लिए नहीं बल्कि परमार्थ ले लिए माँगी थी । तभी यह फार्मूला चल निकला कि

मर जाऊँ माँगूँ नहीं अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने मोहिन आवे लाज ॥

सो लोगों ने लाज-शर्म त्याग कर परमार्थ के नाम पर माँगना शुरु कर दिया । भले ही लोग आलोचना करने लगे कि वह तो अपने बच्चों को साथ लेकर भीख माँगती है या उसे तो भीख माँगने की आदत है । मगर भीख माँगना चालू है और वह भी अपने घर से खर्चा करके, कार में बैठकर, हवाई जहाज, हेलीकोप्टर में उड़-उड़ कर । बच्चों ही नहीं, बेटे-बेटी, पत्नी और यहाँ तक कि किराए पर भीड़ जुटाकर, सुन्दरियाँ तक ला-लाकर भीख माँगना जारी रखा है जैसे कि कविसम्मेलनों में माँग कम होने पर कोई बूढ़ा कवि अपने साथ एक सुन्दर कवियित्री को रखकर कविसम्मेलन कबाड़ता है ।

लोग बेकार ही इस युग को कलयुग कहकर बदनाम कर रहे हैं जब कि परमार्थ के लिए इतने कष्ट उठाने वाले तो सतयुग में भी नहीं हुए थे । हमें सतयुग की तो याद नहीं है मगर पहले आम चुनाव की ज़रूर याद है । तब लोग माँगते भी ठसके से थे । जैसे कि हमारे मोहल्ले में एक साधु आया करते थे जो घर के आगे खड़े होकर बोलते थे- सत्त राम । कोई यदि भीख लाने में देर कर देता था तो चल पड़ते थे । वैसे ही पूरे गाँव में राजनीतिक पार्टियों के मुश्किल से दो-चार पोस्टर ही दिखाई देते थे । लिखा होता था 'कांग्रेस को वोट दो' या 'राम राज का यही निशान, उगते हुए सूर्य भगवान या फिर कहीं कहीं स्टेंसिल से दीवारों पर छपे गए हँसिया-हथौड़ा या कभी-कभी कोई रात में दीवारों पर लिख जाता था- ‘अपना वोट किसको दें, दीपक के निशान को’ आदि-आदि । यह बात और है कि अब न सूर्य है और न दीपक मगर अजीब कमाल है कि अँधेरे में ही खिलना चाहता है । अब न बैल हैं न किसान और न ही हल । एक हाथ है, पता नहीं स्टॉप का साइन है या झाँपड का संकेत । जब हल, किसान ही नहीं तो हँसिये की ज़रूरत? मगर है । पता नहीं किसी की गर्दन काटने के लिए है क्या ? अब तो हाथी घूम रहे है यदि कहीं कोई फसल उगी हुई हो तो उजाड़ने के लिए । कोई साइकिल पर पोस्टमैन की तरह लैपटॉप का आश्वासन बाँटता फिर रहा है ।

आज प्रतियोगिता इतनी बढ़ गई है कि जिसे देखो परमार्थ के लिए भीख माँगने के लिए निकल पड़ा है । अच्छे भले खानदानी भिखारियों का मार्केट बिगाड़ दिया । अब भीख माँगना भी आसान नहीं रहा । बड़े पापड़ बेलने पड़ते हैं । बड़ा खर्चा बढ़ गया है । पहले पार्टी का नाम लिख दिया जाता था और दयालु लोग भीख दे दिया करते थे । अब तो भीख देने वाले कहने लगे हैं कि तुम भीख लेकर सेवा करोगे और सेवा से मेवा मिलता है सो हमें तो अपने हिस्से का मेवा अभी दे जाओ; भले ही वह नकद न हो, लेपटाप के रूप में हो, साइकिल के रूप में हो, दारू के रूप में हो । अब किसको क्या-क्या दो । और देने के बाद भी वोट की कोई गारंटी नहीं है । कहीं दारू के नशे में टुन्न होकर पोलिंग के दिन सोते ही रह जाएँ । और तिस पर चुनाव आयोग का डंडा ऊपर से ।

नए-नए रूप धारण करने पड़ते हैं- कभी धर्म निरपेक्ष, कभी जातिवादी, कभी गरीब प्रेमी, कभी साम्प्रदायिकता विरोधी, कभी सिर पर पगड़ी बाँधनी पड़ती है तो कभी टोपी पहननी पड़ती है । कभी कोई तलवार थमा देता है तो कभी कोई धनुष-बाण । अब किसे चलाना आता है ? सब को टेंशन बना रहता है कि कहीं किसी की आँख न फोड़ दे या कहीं अपनी ही अँगुली न कटवा ले । भीख माँगना न हुआ नौटंकी हो गई । बहुरूपिया भी इतने वेश नहीं बदलता । पहले इतनी कठिनाई कहाँ थी- बस, फटे-पुराने कपड़े और चेहरे पर थोड़ा दीनता का भाव ले आए और हो गया काम । वैसे पहले के भिखारी धनवान होते भी नहीं थे सो ज्यादा मेकअप करने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती थी । आजकल तो अधिकतर होते करोड़पति हैं और नाटक करना पड़ता है भिखारी का । बड़ा मुश्किल काम है मगर क्या किया जाए, सेवा का चस्का है ही ऐसा । एक बार लग गया तो छूटता ही नहीं, भले ही भीख न मिले तो दानदाता की कनपटी पर कट्टा ही रखना पड़े । मगर भीख तो चाहिए ही । सेवा जो करनी है ।

छः दशक पहले भीख माँगने का चक्कर ही नहीं था । साहब बहादुर डाइरेक्ट खेतों से ही भीख उठवा लिया करते थे । अब ज़रा प्रोसीज़र लंबा हो गया है । पहले सरकारी खरीदी होगी, फिर गोदामों में जाएगा, फिर नरेगा और मध्याह्न भोजन का कार्यक्रम बनेगा फिर अनाज इश्यू होगा फिर कहीं उसमें से अपने हिस्से की भीख मिलेगी । और कहीं किसी सिरफिरे ने कुछ भाँजी मार दी या किसी पत्रकार ने पोर्न गेट की तरह कैमरे में कैद कर लिया तो बिना बात की झाँय-झाँय । और फिर चुनाव भी ससुर आए दिन लगे ही रहते हैं । कभी विधान सभा तो कभी लोकसभा, कभी पंचायत तो कभी नगर निकाय । एक बार भीख माँगकर पाँच साल तसल्ली से खाने भी नहीं देते ।

क्या किया जाए । लोकतंत्र जो ठहरा । यह सब तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा । बिना सेवा किए मेवा तो दूर, कोई घास भी नहीं डालता । और जहाँ तक काम का सवाल है तो अपने को इसके सिवा कुछ आता तो भी नहीं । चलो कुछ भी हो, लोग कुछ भी कहें । धंधा तो धंधा है, भीख हो या जेब काटना । उठो प्यारे, चलो भीख माँगने । एक बार मिल जाए फिर कौन पूछता है कि भीख माँगने रावण आया था या सुदामा ।

एक चरवाहे की कहानी है । उसकी बकरी ब्याने वाली थी । ज़रा मुश्किल हो रही थी । कभी मेमने के पैर थोड़े से बाहर निकलते और कभी अंदर हो जाते । चरवाहा बड़ा परेशान । संकट में ही तो भगवान याद आते हैं सो बोलने लगा प्रसाद - कभी सौ का तो कभी दो सौ का । उसकी पत्नी ने कहा- तेरी बकरी तो पचास की भी नहीं है और तू प्रसाद बोल रहा है सौ-दो सौ का । क्यों घाटा खाने पर तुला हुआ है । चरवाहे ने उत्तर दिया- एक बार बच्चा बाहर आ जाने दे फिर हनुमान जी और शिवजी सब को देख लूँगा ।

सो एक बार पोलिंग हो जाने दीजिए फिर ढूँढते रहिएगा इन भिखारियों को । पता नहीं, कहाँ मुन्नी बाई से बँगलों में बैठे झंडू बाम मलवा रहे होंगे ?

१६-२-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. अब परमार्थ तो करना ही पड़ेगा. हम आप नहीं कर रहे तो क्या, कोई न कोई तो करेगा...

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  2. वाह वाह जोशी जी बहुत सुंदर व्यंग अब परमार्थ के लिये इन बिचारों पर हमारी आपकी नज़रे इनायत कैसे नकारी जा सकती. इतनी मेहनत के बाद झंडू बाम लगवाना भी ठीक ही है.

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