Feb 6, 2012

ओल्ड इज गोल्ड : इज बींग सोल्ड उर्फ़ स्थानं प्रधानं



भले ही ओल्ड माता-पिता या पति-पत्नी का आज के ज़माने में महत्त्व कम हो रहा हो मगर कहने वाले कहते हैं कि पुरानी शराब और पुरानी प्रेमिका का कोई मुकाबला नहीं । खैर, यह आलेख ऐसे किसी रोमांटिक विषय के बारे में नहीं है । यह तो पुरानी वस्तुओं के बाजारीकरण के बारे में है । जब से म्यूज़ियम और पुरानी चीजों की नीलामी करने वाले संस्थानों का जाल फैला है तब से बहुत कुछ सामान पुरानी वस्तुओं का धंधा करने वालों और उनके लिए ऐसी वस्तुएँ उपलब्ध करवाने वाले चोरों की भेंट चढ़ने लगा है ।

अभी एक सूचना है कि अंडमान के सेल्यूलर जेल में सुरक्षित, वीर सावरकर से संबंधित सामान मुम्बई में बनाए गए स्मारक के लिए ले जाए जा रहे हैं । इस आलेख में इसी सन्दर्भ में, इस समस्या पर एक बड़े आयाम पर, बात रखने की कोशिश की गई है और इस पर सभी की, विशेषरूप से अंडमान कम्यूनिटी के सदस्यों से प्रतिक्रिया की आशा है ।

दुनिया का सबसे बड़ा म्यूज़ियम ब्रिटेन का नेशनल म्यूज़ियम है जिसमें दुनिया के विभिन्न देशों से ज़बरदस्ती या चुराकर लाई गई वस्तुएँ हैं जिन्हें देखने के लिए दुनिया के लाखों दर्शक जाते हैं । इसी तरह से योरप के और भी बहुत से देशों में अपने-अपने उपनिवेश रहे देशों से लाई गई बहुत सी वस्तुएँ हैं । वास्तव में इन वस्तुओं पर उनके मूल देशों का ही अधिकार है और होना भी चाहिए किन्तु इन देशों की दादागीरी के चलते कोई भी इन देशों को उन वस्तुओं को लौटाने के लिए बाध्य नहीं कर सकता । अमरीका में भी वहाँ के म्यूज़ियमों में विभिन्न देशो की अमूल्य वस्तुएँ हैं । अमरीका दूसरे देशों में उपनिवेश तो नहीं रहे किन्तु उसके शौकिया या व्यावसायिक संग्रह्कर्त्ताओं ने पैसे के बल पर लोगों को अपने देशों से चुरा कर विभिन्न पुरातन और अमूल्य एवं दुर्लभ वस्तुओं को उनके हाथों बेचने के लिए प्रेरित किया ।

यदि आज भी किसी देश की कोई पुरातन मूर्ति किसी विदेशी के पास पाई जाती है तो यह सच है कि वह उसने चोरों से ही खरीदी है क्योंकि कोई भी पुजारी या भक्त उसे किसी भी कीमत पर चुरा कर नहीं बेचेगा । और खरीदने वाले को भी यह सोचना चाहिए कि भारत में देवताओं की मूर्तियाँ घरों में संग्रह करने या म्यूज़ियमों में रखने के लिए नहीं वरन मंदिरों में स्थापित करने के लिए बनाई जाती हैं और प्राण-प्रतिष्ठा होने की बाद तो उन्हें किसी भी कारण से स्थानान्तरित नहीं किया जाता, जगन्नाथ जी की मूर्तियों को कुछ समय के लिए किसी उत्सव विशेष के लिए ले जाए जाने जैसे अपवादों के अलावा । क्या अमरीका और योरप के, अन्य देशों के पुरातन भारतीय देवताओं की मूर्तियाँ खरीदने वालों को यह पता नहीं है ? उन्हें सब पता है किन्तु उनके मन में भारतीय आस्था के प्रति कोई सम्मान नहीं है । उनके लिए यह भी अन्य व्यापारों की तरह से एक व्यापार है । और कुछ संशोधन के साथ कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि 'एवरीथिंग इज अनफेयर इन वार एंड बिजनेस' ।

यदि इस्लाम में मूर्तियों का विरोध नहीं होता तो शायद भारतीय मूर्तियों के सबसे बड़े म्यूज़ियम मुस्लिम देशों में होते । अमरीका के स्मिथसोनियन संग्रहालय में एक शिव का सर था । अंगकोरवाट मंदिर से चुराई गई मूर्तियों का एक कैटेलॉग पहुँचा जिसमें यह सर भी था । चूँकि यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा था सो उसे वापस करना पड़ा, मगर ये तो अपवाद हैं ।

मूर्तियाँ, किले, महल, वस्त्र, गहने आदि किसी स्थान का इतिहास होते हैं और वे उसी स्थान की उपज होते हैं । वे किसी उपभोग की वस्तु की तरह नहीं होते जिनका उत्पादन और व्यापार किया जाए । इसलिए उनका स्थान और महत्त्व उसी परिवेश में है । अगर अमरनाथ के शिवलिंग की प्रतिकृति, कहीं वैज्ञानिक उपायों से बर्फ जमाकर बना भी ली जाए तो वह न तो अमरनाथ है और न उसका वह महत्त्व है । आप उसे एक अजूबे के रूप में देख सकते हैं । कोई मक्का-मदीने की नक़ल अपने यहाँ बना ले तो वह उसका विकल्प नहीं हो सकता और न ही वहाँ के निवासी और उस धर्म के अनुयायी इसे बर्दाश्त करेंगे । यदि ऐसा हो सकता और उचित होता तो जापान के लोग अपने वहीं बौद्ध-गया की प्रतिलिपि बना लेते और बौद्ध-गया में आने का कष्ट नहीं उठाते । इसी तरह सिक्ख ननकाना साहिब ( अब पाकिस्तान में ) जाने की बजाय यहीं बना लेते वैसा ही गुरुद्वारा । पाकिस्तान वाले भी अजमेर वाले ख्वाज़ा का स्थान अपने वहीं बना सकते थे । कुछ लोग भक्तों की श्रद्धा का फायदा उठाकर जहाँ चाहें मेहंदीपुर वाले बालाजी या तिरुपति मंदिर बना कर बैठ जाते हैं । क्या कहीं अन्य देश में वेटिकन का होना अजीब नहीं लगेगा । यह बात और है कि एक बार भक्तों की सुविधा के लिए तिरुपति भगवान के मुख्य-मंदिर के कुछ पुजारी लोग उनका डुप्लिकेट बनाकर अमरीका के डेट्रोइट शहर में ले गए । पता नहीं, यह भगवान का विस्तार था या भक्तों द्वारा पैसे के बल पर प्राप्त की गई सुविधा या पुजारियों का लालच । किन्तु मेरा मानना है और आप भी इससे सहमत होंगे कि 'स्थानं प्रधानं ' ।

अब यदि सावरकर से संबंधित वस्तुओं को मुम्बई ले जाने की बात पर आएँ तो आप भी मानेंगे कि सावरकर इस देश के एक महान और अद्वितीय देशभक्त थे । उनके लिए महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश के प्रत्येक देशभक्त के मन में श्रद्धापूर्ण स्थान है । इसीलिए मुझे याद कि संभवतः १९८१ या ८२ में महाराष्ट्र के कुछ उत्साही श्रद्धालु पोर्टब्लेयर आए थे और अपने साथ वीर सावरकर की आवक्ष प्रतिमा लाए थे जिसे एक समारोह में सेल्यूअर जेल के सामने स्थापित किया गया था । मुझे भी उस कार्यक्रम में शामिल होने का सौभाग्य मिला था ।

उन लोगों की श्रद्धा प्रणम्य है किन्तु सेल्यूलर जेल, पोर्ट ब्लेयर में सावरकर द्वारा प्रयुक्त या संबंधित वस्तुएँ वहीं शोभा देती हैं । आप यदि इन वस्तुओं को मुम्बई ले भी जाएँगे तो उसे वास्तविक अर्थ, प्रभाव और अनुभूति देती वह कुख्यात जेल, वह सागर तट कहाँ से लाएँगे ? जितने सावरकर महाराष्ट्र में हैं उन्हें उतना वहाँ रहने दें और जितने वे अंडमान में हैं उन्हें उतना अंडमान में रहने दें । इससे लोगों की श्रद्धा और सावरकर के महत्त्व में क्या फर्क पड़ जाएगा ? कुछ नहीं, किन्तु तब हम सावरकर के दो टुकड़े कर देंगे । गाँधी के जन्म को पोरबंदर का सौभाग्य रहने दें और उनके बलिदान को दिल्ली का इतिहास । मेरा तो यहाँ तक मानना है कि किसी भी देश या स्थान पर बने किसी भी निर्माण को हम उस समय के सत्य की तरह क्यों नहीं देख सकते ? क्यों उसे गुलामी या गौरव का प्रतीक बनाने के चक्कर में पड़ते हैं ?

एक बार कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर ने अंडमान में कहा था कि यहाँ सावरकर की जगह गाँधी जी प्रतिमा लगानी चाहिए । अब उन राजनीति के अंधे व्यक्ति को कौन समझाए कि गाँधी जी का अंडमान से क्या संबंध है ? ठीक है, गाँधी इस देश के एक महान नेता हैं किन्तु वे अंडमान में सावरकर और सुभाष की तरह प्रासंगिक नहीं हो सकते । हाँ, पोर्ट ब्लेयर में हिंदी साहित्य कला परिषद के पास ही स्थित लाइट-हाउस सिनेमा के सामने गाँधी जी की एक प्रतिमा लगी हुई है और उस इलाके का नाम मोहन नगर भी है । जिससे किसी को भी ऐतराज़ नहीं है । यह बात और है कि उस समय उस इलाके में गाँधी जी को श्रद्धांजलि-स्वरूप स्मगलिंग का सामान, अवैध दारू और ताज़ा कटे, चमड़ी उधेड़े साबुत सूअर बिकते थे । अब पता नहीं, गाँधी जी के सिद्धांतों का उस इलाके में और कितना विकास हो गया होगा ? ये बातें २६ वर्ष पुरानी हैं । पता नहीं, मणिशंकर जी की निगाह में यह सब आया या नहीं या फिर वे सावरकर और गाँधी जी का विवाद खड़ा करने के लिए ही गए थे ।

निष्कर्षतः सावरकर जी का सभी सामान सेल्यूलर जेल में ही रहना चाहिए । वहीं उसकी शोभा और महत्त्व है । यदि ज्यादा ही श्रद्धा है तो उनके सामानों की प्रतिकृतियाँ बनवाई जा सकती हैं । वैसे जो आनंद पैदल तीर्थ यात्रा में है वह हवाई जहाज से या फिर उस स्थान का चित्र देखने में या उसकी प्रतिकृति में नहीं है । श्रद्धेय के चरणों में भक्त जाए, न कि सुविधा के लिए श्रद्धेय को अपने पास बुलाने का दंभ पाला जाए ।

पता नहीं, यह श्रद्धा है या इसमें कहीं दूरगामी राजनीतिक लाभ उठाने की मंशा भी छुपी हुई है जैसे कि वोट के लिए राम मंदिर, अम्बेडकर और अल्पसंख्यक का राग अलापना ।

ऐसे तमाशों और अधकचरे कामों के अलावा, क्या देश के लिए प्राण देने वाले और उसे एक गौरवशाली राष्ट्र बनाने का सपना देखने वाले देशभक्तों के आदर्शों को देश के मानस में उतारने का कोई सार्थक और ईमानदार तरीका नहीं हो सकता ?

३-२-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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