Feb 6, 2012

मोटापा : एक बाज़ार निर्मित समस्या


मोटापा : एक बाज़ार निर्मित समस्या

अमरीका के ओहायो राज्य में एक बच्चे को उसके माता-पिता से अलग करके उसे 'चाइल्ड प्रोटेक्टिव सर्विस' की देखरख में दे दिया गया है । यह ओहायो राज्य का पहला मामला है । कहा गया है कि माता-पिता की खान-पान में लापरवाही से इस आठ वर्षीय बच्चे का वजन २०० पाउंड हो गया ।

हमारे नानाजी के एक मित्र थे । वे एक भूतपूर्व सैनिक थे । प्रथम विश्व युद्ध में भाग ले चुके थे । हमारे नानाजी वैद्य थे । उन्होंने नानाजी से अपनी तकलीफ बताई कि उन्हें अब एक पाव ( २५० ग्राम ) घी भी नहीं पचता । कोई अस्सी बरस की उम्र में भी उन्हें इतना घी नहीं पचाने की शिकायत थी तो पता नहीं, जवानी में कितना घी खाते होंगे । हमारे नानाजी तब दिन में दो रोटियाँ खाते थे- एक सुबह और एक शाम को क्योंकि वे बहुत अधिक शारीरिक श्रम नहीं करते थे । अपने मित्र को उन्होंने यह कहकर समझाया कि आजकल शुद्ध घी कम ही मिलता है सो कम खाना ही ठीक रहेगा ।

हमारी बहू डाक्टर है । वह जब-तब हमें घी और नमक कम खाने की सलाह देती रहती है । हम उसकी चिंता समझते हैं । हमारे पिता जी जीवन भर नमक और घी खूब खाते रहे । वे पचहत्तर वर्ष की उम्र में भी लकड़ियाँ फाड़ने का शौक रखते थे । हमें भी जब तक दाल में दो चम्मच घी नहीं डाले जाएँ मज़ा ही नहीं आता । बाजरे की रोटी हो तो भले ही एक रोटी पर चार चम्मच घी लगा दिया जाए, हम अब भी खा और पचा लेते हैं । अब भी हम अपने सभी काम स्वयं करते हैं । दो-तीन किलोमीटर जाना हो तो हमें किसी वाहन की आवश्यकता नहीं महसूस नहीं होती । दस-बारह किलो वज़न उठाकर चलने में कोई थकावट नहीं होती । आगे की राम जाने मगर अभी तक तो कोई परेशानी नहीं है ।

भोजन में घी भी ज़रूरी है मगर कितना, यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप कितना शारीरिक श्रम करते हैं । पहले बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता था । इसलिए जब भी मौका मिलता था लोग जमकर खाते थे और उन्हें कुछ भी नहीं होता था । जाड़े में सभी लोगों की, यदि संभव हो तो, यह कोशिश रहती थी कि दो-चार किलो घी के लड्डू बनवा कर खाए जाएँ । मगर आजकल के आदमी की व्यस्तता इतनी बढ़ गई गई कि दिन और रात, सर्दी और गरमी को अनुभव करने का समय ही नहीं है और मौसम के अनुसार भोजन के बारे में सोचना और खाना भी उनकी प्राथमिकता में नहीं रहा । संपूर्ण रूप से देहवादी होने पर भी आज के आदमी के पास ब्यूटी पार्लर में जाने, दस तरह की क्रीमें और तेलों के बारे में सोचने के लिए समय और पैसा है मगर भोजन के मौसम, स्वाद और पौष्टिकता के बारे में सोचने का पता नहीं ज्ञान नहीं है या समय नहीं है । मगर यह सच है कि व्यक्ति का भोजन स्वाद और पौष्टिकता की दृष्टि से घटिया होता जा रहा है । हर मौसम के स्थानीय फल और सब्जी हमारे भोजन में होने चाहिएँ । वे हमारी सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं ।

आजकल लोगों को पता ही नहीं है कि किस मौसम का क्या फल और सब्जी होते हैं । जो थोड़े से भी साधनसंपन्न है वे या तो बेमौसम की चीजें खाते हैं या फिर बाज़ार के फास्ट फूड खाते हैं । बाज़ार में मिलने वाले ऐसे ही पदार्थ, बेमौसम के महँगे खाद्य पदार्थ उनके लिए अपने स्टेटस को दिखाने के साधन बन गए हैं । खाने का समय भी तय नहीं है । बहुत कम लोग ऐसे हैं जो हमेशा घर का बना खाना शांति से बैठकर खाते हैं । टी.वी. देखने, बिना बात एस.एम.एस. करने या कम्प्यूटर पर बैठने का समय है पर पता नहीं, ऐसी क्या मज़बूरी है कि केवल शांति से बैठकर चबा-चबा कर खाने का समय नहीं है । भोजन के प्रति ऐसा दृष्टिकोण अन्य स्वास्थ्य समस्याओं ही नहीं बल्कि मोटापे का भी कारण बन रहा है । यदि पैसा अधिक है तो इसका मतलब यह नहीं है कि आप खूब खाएँ बल्कि खाना अपनी उम्र और शारीरिक मेहनत करने के अनुपात में खाना चाहिए । जिनको कम खाना चाहिए वे अधिक खाने से होने वाली समस्याओं से पीड़ित हैं और जिन्हें अधिक प्रोटीन और वसा चाहिए वे बेचारे पूरा भोजन न खाने मिल पाने के कारण कुपोषित हो रहे हैं । यही करण है कि मोटापा कम करवाने का व्यवसाय आजकल एक अरबों डालर का धंधा बन गया है ।

यह तो अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हो पाए भारत जैसे समाजों के माध्यम वर्ग की समस्या है । तथाकथित विकसित देशों की इस समस्या के आयाम कुछ और हैं । जिन्होंने दर्द दिया है वे ही उस दर्द की दवाएँ बेच रहे हैं जैसे कि एक पुरानी फिल्म का गाना है- 'तुम्हीं ने दर्द दिया है तुम्हीं दवा देना' । इस समस्या की जड़ है बाजार के वे बहुराष्ट्रीय विक्रेता जिन्होंने परिवारों की परंपरागत भोजन व्यवस्था को लगभग समाप्त कर दिया है । ये बड़ी कम्पनियाँ खाद्य पदार्थों को किसानों से सीधे खरीद लेती हैं और उन्हें वेल्यू एडीशन के फंडे ( फंदे ) के तहत परिष्कृत या संवर्धित करके बेचती हैं । इसका अर्थ यह है कि वे आपको गेहूँ नहीं बल्कि ब्रेड या बन या बिस्किट या बनी बनाई रोटियाँ बेचती हैं । आप चाहकर भी बाज़ार में गेहूँ नहीं पा सकते क्योंकि किसानों से पूर्व में ही किए गए समझौते के तहत ये सारा गेहूँ खरीद लेते हैं । यही हाल अन्य सभी खाद्य पदार्थों का है । अब ये कम्पनियाँ जो कुछ बनाकर बेचेंगी वही आपको खाना पड़ेगा ।

आप न तो अपने घर पर कोई चीज बना सकते और न ही उसकी शुद्धता के बारे में जान सकते । रेपर पर यह तो लिखा होगा कि इसमें इतना फैट है मगर यह पता नहीं लगाया जा सकता कि यह गाय का घी है या किसी मरे हुए सूअर की चर्बी । दूध भी डिब्बों में बंद मिलेगा और इस प्रकार तैयार किया हुआ कि पन्द्रह दिन तक खराब नहीं हो । स्वाभाविक रूप से तो दूध इतना टिकाऊ नहीं होता । उसमें कुछ न कुछ ऐसे केमिकल मिलाए जाएँगे जो कि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं । इसी तरह जो मांस बिकता है वह पता ही नहीं लगता कि क्या है और किस तरह तैयार किया गया है । लोग डिब्बों में बंद सामान लाते हैं और भगवान के भरोसे खा लेते हैं । तभी इतनी बीमारियाँ फ़ैल रही हैं । जिन जानवरों को पालकर यह मांस तैयार किया जाता है उन्हें हिलने डुलने तक नहीं दिया जाता है और जल्दी से जल्दी मोटा करने के लिए जाने क्या-क्या खिलाया जाता है । इंग्लैण्ड में 'मैड काऊ' बीमारी बाज़ार की इन्हीं बदमाशियों का नतीजा था । यह तो बड़े स्तर पर कुछ पकड़ में आ गया तो सब को पता चल गया । वरना अब भी इन बाज़ारों में क्या-क्या और कैसा बेचा जा रहा है, किसी को पता नहीं । इन बड़ी कंपनियों में बड़े-बड़े लोगों और राष्ट्र के कर्णधारों तक के शेयर हैं इसलिए सब की मिली भगत है । इसलिए न तो पता चलने दिया जाता है और न ही पता चलने पर कोई निर्णायक कार्यवाही हो पाती है ।

जानवरों को जल्दी से मोटा करने के लि जो पदार्थ खिलाए जाते हैं, उनका मांस खाने से बच्चों को भी जल्दी से मोटापा आता है जो कि स्वाभाविक नहीं है । साथ ही बच्चों में जो जैविक परिवर्तन होते हैं वे बच्चों के विकास को असामान्य रूप से असंतुलित कर देते हैं । उनका अस्वाभाविक रूप से शारीरिक विकास तो हो जाता है मगर उस अनुपात में मानसिक विकास नहीं हो पता । मनुष्य के बच्चे का जिस तरह स्वाभाविक विकास होता है उस तरह से इन बच्चों का नहीं होता ।

गत महिनों में भारत में भी महँगाई कम करने के बहाने से जिन बड़ी कंपनियों को लाने की तैयारी चल रही थी और जिसे चुनावों के डर से एक बार ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है वे महँगाई तो क्या कम करेंगी बल्कि बिचौलियों से बचने वाले पचास प्रतिशत में से कुछ समय के लिए ग्राहकों को पाँच दस प्रतिशत सस्ता दे देंगी मगर उसके बाद फिर वही अपनी मनमानी करेंगी और इनसे व्यक्तिगत रूप से आभारी बनी हुई सरकारें कुछ नहीं कर सकेंगी । तब भारत में जो कुछ थोड़ा सा घर, चूल्हा, स्वयं ख़रीदे खाद्य पदार्थों से बना, शुद्ध भोजन का रिवाज़ बचा है वह भी विदेशों की तरह से डिब्बा बंद हो जाएगा और तब यहाँ भी पता नहीं चलेगा कि आप क्या खा रहे हैं । इन कंपनियों का आना केवल छोटे व्यापारियों का खात्मा ही नहीं है बल्कि हमारी परिवार-व्यवस्था और भोजन की संस्कृति पर भी बहुत बड़ा आघात होगा । तब भोजन से न तो माता का संबंध होगा और न चूल्हे का । भोजन के समय सबके जुटने और साथ भोजन करने की अवधारणा भी समाप्त हो जाएगी ।

यह वही बाज़ार होगा जो पहले गृहणियों को बताता था कि क्या आपका जीवन चूल्हे-चाकी में पिसने के लिए बना है । आपको स्वतंत्रता चाहिए । इसलिए हम ( बाजार ) आपको गृहस्थी के कामों से निजात दिलाने वाले उत्पाद बेचेंगे । फिर वे ही कहने लगे कि अब हम आपको खाली समय में मन बहलाने के साधन बेचेंगे । जब लोग मोटे होने लगे तो अब वे कहते हैं कि हम आपको क्रीम निकला दूध बेचेंगे और वह क्रीम अलग से बेचकर पैसे कमाएँगे सो अलग । फिर उन्होंने ही आपको फिट रखने वाली मशीनें बेचनी शुरु कर दीं । मतलब कि हम जैसे कहें करते चलिए । आपको न तो सोचना है और न ही हम आपको सोचने लायक छोड़ेंगे ।

यदि लोग अपने घरों में ही भोजन की कूटने, पीसने आदि की तैयारियाँ करें तो भोजन की स्वास्थ्य-वर्धकता, स्वच्छता बढ़ जाएगी बल्कि उसके लिए चाव और आनंद भी बढ़ जाएगा । ताजा भोजन की बात ही कुछ और होती है उसे डिब्बा बंद भोजन करने वाले तो भूल ही चुके होंगे । ऐसे भोजन से मोटापा नहीं बढ़ेगा और वह सस्ता भी पड़ेगा । मगर तब बाजार का क्या होगा ? आदमी का क्या है ? वह तो बाजार के लिए मुर्गी, सूअर और गिनी पिग से अधिक नहीं है । अमरीका में बहुत से लोग जो फूड स्टाम्प से काम चला रहे हैं उन्हें ज्यादा मुश्किल इसलिए आ रही है कि वे न तो भोजन बनाना जानते हैं और न ही उन्हें भोजन का कच्चा माल इन बड़ी किराना कंपनियों के कारण बाजार में मिल पाता है ।

यदि नहीं समझे तो आप भी अमरीका जैसी स्थिति के लिए तैयार रहिए ।

वैसे जो सरकार एक बच्च्चे के वजन बढ़ने के कारण इतनी संवेदनशीलता दिखाने का नाटक कर रही है वह अपनी पारिवारिक और बाजार व्यवस्था को क्यों नहीं सुधारती ? क्यों आदमी को पेट भरने मात्र के लिए इतना दौड़ाया जा रहा है ? क्यों भोजन को एक पारिवारिक उत्सव जैसा रूप नहीं देती जिसमें सब्जियों को काटने-छीलने, साफ करने, आटा गूँदने, रोटी बेलने, सेकने, परोसने और साथ खाने के बाद बर्तन साफ करने जैसे सभी काम खुद करें तो सभी सदस्य कितना कुछ सीखेंगे और रिश्तों में और भोजन में कितना रस घुलेगा जिसमें परिवार के सभी सदस्य के पारिवारिक संबंध भी मज़बूत होंगे और लोगों का स्वास्थ्य भी सुधरेगा ।
। जब होटलों तक में भोजन का समय निश्चित होता है तो फिर घर को सड़क किनारे का ढाबा जैसा बनाने की क्या मज़बूरी आ गई ।
वैसे पारिवारिकता कम होने से व्यक्ति की सामाजिकता भी कम होती चली जाती है और इस कमी से उपजी कुंठा को दूर करने के लिए वह पशु की तरह अकेला होकर आहार, निद्रा और मैथुन में ही अपनी सारी शक्ति लगा देता है जिसका परिणाम मोटापे, अवसाद और शारीरिक व्याधियों में होता है । इसलिए इन सब समस्याओं का हल व्यक्ति को सामाजिक बनाने की शुरुआत परिवार से ही करना आवश्यक है जिसके लिए बाजार द्वारा फैलाई जा रही व्यक्तिवादिता से नहीं बल्कि मानव विकास के शाश्वत और मूल सिद्धांत 'सामूहिकता' को अपनाना आवश्यक है । मनुष्य को केवल खाना खाने ही नहीं, खिलाने के आनंद से भी परिचित कराया जाए । उपवास का भी कोई शारीरिक ही नहीं मानसिक अर्थ भी है । यह केवल डाइटिंग ही नहीं है । उपवास भी एक अध्यात्मिक अनुभूति हो सकती है । ये सब मनुष्य के समझने के लिए ही हैं । पशु को यदि खूँटे से बाँध कर नहीं रखा जाए तो उसे भी इन पशुतुल्य मनुष्यों वाली समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ता ।

अभी कुछ दिनों पहले ही अमरीका की केलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के रॉबर्ट लस्टिंग के नेतृत्त्व वाली शोध टीम का एक आलेख 'नेचर' नामक पत्रिका में छपा है जिसमें बताया गया है कि अमरीका की दो तिहाई आबादी आदर्श वज़न के हिसाब से 'अधिक वज़न' वाली है और उसका आधा अर्थात अमरीका की एक तिहाई आबादी ( दस करोड़ ) मोटों की श्रेणी में आती हैं । साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि अमरीका के स्वास्थ्य बजट का ७५ प्रतिशत भोजन-जनित बीमारियों के इलाज़ पर खर्च हो जाता है । और इसका कारण भी बताया गया है कि इसके लिए भोजन कंपनियाँ जिम्मेदार हैं ।

सच है कि इन शक्तिशाली कंपनियों ने सरकार की नीतियों, टूटते परिवारों और अपने अर्थ और विज्ञापन के बल पर भोजन को एक पारिवारिक उत्सव की बजाय एक मशीनी उत्पाद बना दिया है । ऐसे में उस समाज की सांस्कृतिक कमजोरी भी सिद्ध होती है कि वहाँ के पारिवारिक संस्कार बाजार की इस हवा का तनिक भी सामना नहीं कर सके ।

इस दृष्टि से अब बाज़ार के सामने हमारी संस्कृति की भी परीक्षा का समय आन उपस्थित हुआ है ।

अच्छा हो कि सब कुछ लुटाने से पहले ही होश में आ जाएँ ।

२७-१-२०१२

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

3 comments:

  1. हम दूसरों की गलती तो छोड़िये, अपनी से भी नहीं सीखते..

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  2. डा. साहब
    आप जैसे सुधी पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया प्रेरणा देती है
    धन्यवाद
    रमेश जोशी

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