Feb 5, 2012
आई.आई.टी. में प्रवेश की नई नीति
आई.आई.टी.में प्रवेश की नई नीति
३१ जनवरी २०१२ की एक सूचना के अनुसार आई.आई.टी. की नई प्रवेश नीति घोषित हुई है जिसके अनुसार अब परीक्षा के साठ प्रतिशत अंक होंगे और उनमें बारहवीं की परीक्षा के ४० प्रतिशत अंक भी जोड़े जाएँगे ।
आई.आई.टी. अर्थात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान भारत ही नहीं दुनिया के मान्य संस्थान हैं । भारत की स्वतंत्रता के बाद दूरदर्शी प्रधान मंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने कई विकसित देशों की सहायता से उच्च अध्ययन के कई संस्थान स्थापित करवाए थे जिनमें ये आई.आई, टी. भी थे । हालाँकि स्वतंत्रता से पहले भी कई दूरदर्शी लोगों ने ऐसे श्रेष्ठ कार्य किए थे जिनमें टाटा द्वारा स्थापित बैंगलोर का भारतीय विज्ञान संस्थान मुख्य है । इन सभी संस्थानों का भारत की वैज्ञानिक उन्नति में बड़ा योगदान रहा है ।
आई.आई.टी. की कुल संख्या बहुत वर्षों तक केवल पाँच ही रही । इसके बाद अब बहुत से अन्य कालेजों को भी आई.आई.टी. का दर्ज़ा दे दिया गया । दर्ज़ा और बात है और वास्तव में वह होना और बात है । यह तो कुछ वर्षों बाद सिद्ध होगा कि ये कालेज कितने आई.आई.टी. बन पाए?
आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षाओं में पहले बारहवीं के अंकों की कोई न्यूनतम सीमा तय नहीं थी । उसके बाद इसे ६० प्रतिशत कर दिया गया । अब शायद कुछ और बढ़ा कर ७० प्रतिशत कर दिया गया है । आई.आई.टी. के आशार्थी के लिए यह प्रतिशत कोई अधिक नहीं है जब कि आजकल ८०-८५ प्रतिशत वालों तक को धक्के खाने पड़ रहे हैं । यह बात और है कि गली-गली में खुल गए दुकान टाइप कालेजों में किसी भी प्रतिशत पर प्रवेश मिलने की सुविधा के बावज़ूद सीटें खाली जा रही हैं ।
आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षाएँ कुल मिलाकर विवादों से मुक्त रही हैं जब कि आजकल प्रशासनिक परीक्षाओं तक के पर्चे आउट होने के समाचार पढ़ने को मिल जाते हैं । हो सकता है कि आज जब गली-गली में गारंटी से प्रवेश दिलाने वाले कोचिंग संस्थानों के विज्ञापन आ रहे हैं और कुछ तो करोड़ों कमा रहे हैं तो इसे असंभव नहीं माना जा सकता कि वे थोड़ी-बहुत सेंध नहीं लगा पाते होंगे । फिर भी कुल मिला कर परिदृश्य निराशाजनक नहीं है । कभी-कभी आई.आई.टी. में भी कुछ, गैर-इरादतन ही सही, गड़बड़ी होने से पूर्णतया इंकार नहीं किया जा सकता । इसका एक सच्चा उदहारण है कि एक छात्र को सी.बी.एस.ई. की दसवीं की परीक्षा में मेरिट में स्थान मिला, राष्ट्रीय प्रतिभा खोज परीक्षा में छात्रवृत्ति मिली, बारहवीं में भी मेरिट में स्थान मिला किन्तु आई.आई.टी. में प्रथम प्रयास में कहीं भी स्थान नहीं मिला । इसके बाद दूसरे प्रयास में पूरे देश में प्रथम ५० में स्थान मिला । पहले वर्ष भी वह छात्र प्रथम १०० में अपना स्थान निश्चित मान रहा था । यह बात समझ से परे हैं एक वर्ष में ही क्या जादू हो गया कि एक वर्ष पहले कहीं भी स्थान न पाने वाला छात्र प्रथम ५० में स्थान पा गया? चूँकि आई.आई.टी. में अब भी पुनर्मूल्यांकन की व्यवस्था नहीं है इसलिए सत्य का पता नहीं चल सकता । इसे किसी कम्प्यूटर पर काम करने वाले की भूल मान कर ही संतोष किया जा सकता है, न कि इस आधार पर आई.आई.टी. पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाया जा रहा है । चूँकि आई.आई.टी. में कभी बारहवीं के अंकों के आधार पर प्रवेश का नियम नहीं रहा है और न ही किसी दुर्गम स्थान के नाम पर बिना प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण हुए प्रवेश की अनुकम्पा । इसलिए उनका स्तर बना रहा ।
उत्तर-पूर्व तथा देश के कुछ स्थानों में यह व्यवस्था थी, शायद अब भी हो, कि बारहवीं के अंकों के आधार पर कुछ मेडिकल और इंजीनियरिंग कालेजों में प्रवेश दिया जाता था । इसमें क्या बुराई हो सकती है, इसे वहाँ रह चुका या भोग चुका व्यक्ति ही जान सकता है । ऐसे स्थानों पर उच्च पदस्थ अधिकारियों ने इन नियमों की ऐसी मनमानी व्याख्या करवाई कि उनके बच्चे इन दूरस्थ स्थानों की कोई भी असुविधा भोगे बिना दिल्ली में रहकर पढ़ते रहे और उन्हें दूरस्थ स्थानों में सेवा कर रहे अभिभावकों और दूरस्थ स्थानों में पढ़ रहे उनके बच्चों के ऊपर, इन स्थानों के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों पर, कई उच्च अधिकारियों के बच्चों को मेडिकल और इंजीनियरिंग में प्रवेश मिल गया ।
इन दूरस्थ स्थानों के बच्चों के लिए देश के सभी क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कालेजों तथा कुछ अन्य कालेजों में भी सीटें आरक्षित हैं किन्तु अधिक मारामारी मेडिकल सीटों के लिए है क्योंकि मेडिकल की सीटें बहुए कम हैं । ऐसी स्थिति में कई तरह के प्रपंच होते हैं जिनका कुछ अनुमान यहाँ के लोग भी सरलता से लगा सकते हैं जैसे कि साइंस में प्रेक्टिकल के अंक । विज्ञान के अध्यापक प्रायः प्रेक्टिकल के अंकों के बल पर ही टयूशन पकड़ते हैं और बच्चों को ढंग से न पढ़ा कर भी भयादोहन करके अनुशासन कायम किए रहते हैं । बाहर से प्रेक्टिकल की परीक्षा लेने आए परीक्षकों को खुश करके अच्छे अंक दिलवाने के नाम पर बच्चों से चंदा वसूल किया जाता है । जिनके हाथ में बच्चों के प्रेक्टिकल के अंक होते हैं या और किसी तरह से छात्र के परिणाम को प्रभावित कर सकने की क्षमता होती है वे प्रायः छात्रों का शोषण करते हैं । शोध छात्रों विशेषकर छात्राओं का कई तरह से शोषण होता है । रिसर्च करवाने वाले गाइड किस प्रकार शोधार्थियों से बँधुआ मज़दूरों जैसा सलूक करते हैं यह पी.एच.डी. किए हुए डाक्टर लोग ज्यादा जानते होंगे ।
जब विश्वविद्यालय स्तर पर यह हाल है कि विभागाध्यक्ष अपने पुत्रों या पुत्रियों को आतंरिक मूल्यांकन के बल पर टॉप करवा देते हैं और योग्य छात्र टापते रह जाते हैं तो स्कूली स्तर पर, जिसमें हर वर्ष २०-३० लाख विद्यार्थी बैठते हैं और जो देश के सुदूर स्थानों में फैले हुए हैं और परीक्षाओं में नक़ल करवाने और तरह-तरह के हथकंडे अपनाना कोई छुपी हुई बात नहीं है तो फिर यह कैसे विश्वास किया जा सकता है कि बारहवीं के चालीस प्रतिशत अंकों का वेटेज कोई घटिया परिणाम नहीं देगा?
अपने अध्यापकीय जीवन के अनुभव के आधार पर मैं बहुत से उदाहरण दे सकता हूँ । मैं एक ऐसे विद्यार्थी को जानता हूँ जिसने उस स्थान से बारहवीं की परीक्षा दी जहाँ नंबरों के आधार पर मेडिकल में सीट मिलती थी । उसे फिजिक्स की लिखित परीक्षा में विद्यालय में सबसे अधिक अंक मिले किन्तु प्रेक्टिकल में उस विद्यार्थी से भी कम अंक मिले जो लिखित परीक्षा में फेल हुआ था । इसे क्या कहा जाए? कारण, वह न तो किसी अध्यापक के पास ट्यूशन पढ़ रहा था और न ही उसके पिता के पास गुरुजी को प्रभावित कर सकने जितने धन या पद की शक्ति थी ।
इस सन्दर्भ में याद करें कि पाकिस्तान के एक न्यायाधीश महोदय ने अपने प्रभाव का उपयोग करके बोर्ड की परीक्षा में अपनी बेटी के नंबर बढ़वा लिए थे । इसी प्रकार एक राज्य में एक मेडिकल कालेज है जिसमें मनेजमेंट कोटे की सीटें मंत्रीगण अपने बच्चों के लिए जुगाड़ लेते हैं । एक बार दुखी होकर मनेजमेंट वालों ने कहा- हम मनेजमेंट कोटा समाप्त कर रहे हैं तो मंत्री जी ने कहा- फिर हमारे बच्चे कहाँ जाएँगे? तो यह भी एक झलक है प्रवेश की । एक और घटना है एक दूरस्थ स्थान की जहाँ के लिए दिल्ली के लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज में एक सीट आरक्षित है । एक नेताजी ने अपनी बच्ची का वहाँ एडमीशन करवा दिया । बच्च्ची ने एक-दो बार फेल होकर कालेज छोड़ दिया । कालेज वालों ने कहा- कम से कम ऐसे बच्चे तो भेजें जो पास तो हो जाए । बिना बात एक सीट खराब की । मगर किस पर असर पड़ने वाला है? विचार करें ।
यदि आई.आई.टी. अपना स्तर बनाए रखना चाहते हैं तो उन्हें यह कदम नहीं उठाना चाहिए । आतंरिक मूल्यांकन को इतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिए । इससे देश में परीक्षाओं में और विशेष रूप से आतंरिक मूल्यांकन में हो रहे घपलों को और बल ही मिलेगा । यदि संस्थान वाले यह सोचते हैं कि प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी करने वाले बच्चे अपनी बारहवीं की परीक्षा को गंभीरता से नहीं लेते तो उन्हें प्रवेश परीक्षा के लिए बारहवीं में ७५ प्रतिशत अंक अनिवार्य कर देने चाहिएँ । आई.आई.टी. के आशार्थी के लिए ये अंक कोई बहुत अधिक नहीं हैं जब कि इतने अंक आजकल सामान्य हो गए हैं ।
( इसके विषय में पाठकों, विशेषरूप से विद्यार्थी और अभिभावक क्या सोचते हैं? यह जानने की उत्सुकता रहेगी । )
५ फरवरी २०१२
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach
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