Dec 1, 2008
डरता कौन है - ईश्वर या ठेकेदार ?
१९६५ में मेकार्टनी नामक बीटल गायक के इजराइल में होने वाले कार्यक्रम पर यह कह कर प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि इससे युवकों के भ्रष्ट हो जाने का भय है । लेबनान में रह रहे एक इस्लामी उपदेशक उमर बकरी मोहम्मद ने घोषित कर दिया कि मेकार्टनी सब मुसलमानों का शत्रु है । अक्टूबर २००८ में अमरीका में न्यूयार्क के मेसेना सेन्ट्रल हाई स्कूल के अभिभावकों ने वहाँ चलने वाली योग कक्षाओं को यह कह कर बंद करवा दिया कि उनके अनुसार इससे उनके बच्चों को हिंदू कर्म कांडों में दीक्षित किया जा रहा है । अभी नवम्बर २००८ में मलेशिया में एक इस्लामी संगठन ने योग करने पर यह कह कर फतवा ज़ारी कर दिया कि यह प्राचीन व्यायाम वर्जित है और इस्लाम के अनुसार हराम है । उनकी राय में योग करने से लोगों का इस्लाम में विश्वास ख़त्म हो जाएगा ।
इस विचार पर तो शायद संसार के सारे धर्म एकमत हैं कि ईश्वर एक है । जब ईश्वर एक है तो वह सनातन धर्म, यहूदी, बौद्ध, जैन, ईसाई और इस्लाम धर्म से पहले भी एक ही था और भविष्य में भी एक ही रहेगा । इन धर्मों के उदय से पूर्व भी, उन क्षेत्रों में जहाँ इन धर्मों का जन्म हुआ, कोई न कोई धर्म प्रचलित रहा होगा और नए धर्म के अनुयायी पूर्व में किसी अन्य धर्म के अनुयायी रहे होंगे । जब ये धर्म पुराने धर्म के स्थान पर नए धर्म की स्थापना कर सकते हैं तो फिर धर्मों में परिवर्तन या नए धर्मों के प्रवर्तन की संभावनाएँ हमेशा बनी रहेंगी । अर्थात् न कोई धर्म अन्तिम है और न कोई धर्म अपरिवर्तनीय । इसीलिए तो नए धर्म बनते रहते हैं या पुराने धर्मों में विभाजन होते हैं और होते रहेंगे । किसी को किसी भी धर्म में ज़बरदस्ती बाँधे रखना या अपने विश्वास के अनुसार ईश्वर की कल्पना व आराधना से वंचित करना उचित नहीं है । यही धार्मिक स्वतंत्रता है । इसी शाश्वत सत्य को ध्यान में रखकर गाँधी जी के कहा था कि संसार में जितने मनुष्य हैं उतने ही धर्म हैं । इसीलिए गाँधी जी किसी के भी धर्म परिवर्तन करने या करवाने के ख़िलाफ़ थे ।
यहाँ यह उल्लेख करना ग़लत नहीं होगा कि एक पाकिस्तानी जर्मनी चला गया वहाँ वह ईसाई बन गया । जब वह लौट कर पाकिस्तान आया तो उसे बताया गया कि यदि वह पाकिस्तान में जीवित रहना चाहता है तो उसे इस्लाम में वापिस आना पड़ेगा । इसके बाद जर्मनी ने हस्तक्षेप किया तो वह किसी तरह वापिस जर्मनी जा सका । अपने धर्म के एक आदमी के लिए इतनी हायतौबा । ध्यान रहे कि भारत में मुसलमानों या यूरोपियन के आने से पहले एक भी ईसाई या मुसलमान नहीं था । सबको भय या लालच से धर्म परिवर्तन करवाया गया । अभी दो दिन पहले ही जापान के उन १८८ लोगों को रोमन केथोलिक चर्च ने संत का दर्जा दिया है जिन्होंने १६०३ से १६३९ के बीच धर्म छोड़ने की बजाय मौत की सज़ा को पसंद किया । नागासाकी में पॉप बेनेडिक्ट १६ वें की तरफ़ से होज़े सारिवा मार्टिन ने ब्लेसिंग की रस्म अदा की । यदि धर्म इतना ही महत्वपूर्ण है तो फिर सेवा के बहाने संसार के दूरस्थ आदिवासी इलाकों में जाकर भोले-भले आदिवासियों का ज़रा सी सेवा के बदले धर्म परिवर्तन करवाने की क्या ज़रूरत है । क्या धर्म बदलवाए बिना सेवा नहीं की जा सकती? बड़ा क्रूर और महँगा सौदा है । यह सेवा नहीं बल्कि धर्म, धन और राजनीति का कुटिल षडयंत्र है । जब कहीं भी थोड़ा सा भी विरोध होता है तो मानवाधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है । यह धार्मिक स्वतंत्रता की आड़ में धर्म परिवर्तन करवाने की चाल है । धर्म बदलने से ही अगर कल्याण होना होता तो आज अफ्रीकी ईसाई भूखे क्यों मर रहे हैं? स्वतंत्रता के काबे अमरीका में ईसाई ओबामा में अफ्रीकी मूल दीखने लगा । मतलब कि ईसाई बनकर भी ओबामा पूरी तरह अपना नहीं बन पाया ।
ईश्वर को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि कोई उसे पूजता है या नहीं या कैसे पूजता है । ईश्वर और व्यक्ति का रिश्ता नितांत व्यक्तिगत है । उनके बीच में कोई तीसरी शक्ति नहीं है और न उनके बीच में किसी को टाँग फँसाने का अधिकार है । आज सारे संसार में स्वतंत्रता और मानवाधिकारों की बात होती है पर कोई भी शक्ति चाहे वह राजनीति हो या धर्म, उसे मुक्त नहीं होने देना चाहती क्योंकि अपने अनुयायियों के बल पर ही वे अपनी व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि के लिए शक्ति प्राप्त करते हैं । धर्म से लाभ कमाने वाले ये लोग आदमी और भगवान के बीच एजेंट, दलाल, गेटकीपर या दादा बने हुए हैं । धर्म के नाम पे कोई भी अनुचित काम कर और करवा सकते हैं । ये ही कभी तलवार और कभी सेवा का स्वांग लेकर दूसरे धर्म की भेड़ों के गले में अपना पट्टा बाँधने के लिए निकलते हैं । उन्हें मानव के कल्याण और स्वतंत्रता की कोई चिंता नहीं है । तहाँ तक कि अपने धर्मानुयायियों का कल्याण भी उनका लक्ष्य नहीं है । उन्हें भी वे भय, अज्ञान, लोभ-किसी भी प्रकार अपने पीछे खड़े रखना चाहते हैं क्योंकि इन्हीं के तन, मन और धन के बल पर इनके ठाठ कायम हैं । धर्म एक नितांत व्यक्तिगत भाव, आस्था, शान्ति प्राप्त करने का विधान है । जब व्यक्ति समाज में आता है तो समाज का भला, अपने साथ समाज का विकास अनुशासन, व्यवस्था ही उससे अपेक्षित हैं । इसलिए समाज में सबके लिए समान नियम, कानून होनें चाहियें जिससे सबको मानव होने के नाते समानता का अनुभव हो ।
सच्चा धर्म व्यक्ति और समष्टि के सामंजस्य का विधान है । व्यष्टि समष्टि से अलग नहीं है । दोनों एक दूसरे से पुष्टि प्राप्त करते हैं । ऐसे धर्म का किसी नाम, जाती, नस्ल, भाषा, खान-पान, पूजा पद्धति से कोई संघर्ष नहीं है । संघर्ष तो धर्म की ठेकेदारी करके शक्ति-संचय और स्वार्थ सिद्धि करने वाले भड़काते हैं । सामान्य व्यक्ति तो अपनी मेहनत करके, शान्ति से दो रोटी खाकर, परिवार-पड़ोस में सुख-दुःख बाँटकर खुश है । वह मन से न कट्टर है और न स्वार्थी । उसका तो धर्म के स्वार्थी ठेकेदार डराकर, बहकाकर दुरुपयोग करते हैं । सामान्य जीवन में तो संकट के समय, दंगों के दौरान हिंदू-मुसलमान अपनी जान पर खेल कर एक दूसरे की जान बचाते हैं ।
किसी व्यक्ति धर्म, पूजा-पद्धति, पूजा-स्थल, आस्था, गाने, बजाने, पहनावे अदि से भगवान को न तो कोई फ़र्क पड़ता है और न उसे कोई डर लगता है । डर तो धर्म का धंधा करने वालों को लगता है । इसलिए वे अपने धर्म वालों को भड़का कर अपनी रक्षा करते हैं । इसमें सहायक होते हैं धर्म के शक्ति केन्द्रों के धन से पलने वाले गुंडे जो जघन्य से जघन्य अपराध कर सकते हैं । ये ही लालच या भय से धर्मपरिवर्तन करवाते और लड़वाते हैं ।
मानव की सच्ची स्वतंत्रता का समर्थक कोई कबीर ही हिन्दू और मुसलमान दोनों को उनकी कमियों के लिए डाँट सकता है, गांधी ही ईश्वर अल्लाह तेरे नाम गा सकता है,कोई सच्चा शायर ही कह सकता है-
भगवान भी उर्दू समझता है ।
अल्लाह भी हिन्दी जानता है ।
नहीं तो लोग नोट और वोट के लिए लोगों के घर, मन्दिर, मस्जिद और चर्च फूँकने के लिए घूम ही रहे हैं ।
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
-----
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी | प्रकाशित या प्रकाशनाधीन |
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
insanit se bada koi dharm nahi. narayan narayan
ReplyDelete