Dec 24, 2008

जूता प्रक्षेपक के प्रति श्रद्धा का सच



संस्कृत में एक श्लोक है- 'येन-केन-प्रकारेण प्रसिद्धः पुरुषः भवेत' अर्थात पुरुष को किसी भी प्रकार प्रसिद्ध होना चाहिए । प्रसिद्ध होने पर कई प्रकार के फायदे मिलने लग जाते हैं । और कुछ नहीं तो कोई न कोई पार्टी चुनाव में टिकट ही दे देती है । पत्रकारिता तो गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, बेचन शर्मा 'उग्र' आदि ने भी की पर हमेशा ही 'हैण्ड टू माउथ' रहे । और आज देखिये एक निहायत गुमनाम सा पत्रकार मुन्तज़र अल जैदी सारे संसार में चर्चित हो गया । उसे एक मुस्लिम उद्योगपति ने मर्सडीज कार तोहफे में देने की पेशकश की है, मिस्र के एक पिता ने निकाह के लिए अपनी बेटी प्रस्तुत की है । कंपनियों में उस जूते को अपनी कम्पनी का बताने की होड़ लग गई है । उन कंपनियों ने तो उस जूते को आरामदायक और मज़बूत कहकर बेचा था । उन्हें अपने जूते की मारक क्षमता का पता ही नहीं था । बुश को भी ईराक में व्यापक विनाश के हथियार नहीं मिले और व्यापक विनाश की वह क्षमता पता नहीं इस गंदे और पुराने जूते में कहाँ से प्रकट हो गई । उन जूतों को नष्ट कर दिया गया है पर पता नहीं ऐसे ही और कितने जूते ईराक में छुपे होंगे । इसलिए अमरीका को अपनी सेना ईराक में २०१० तक ही नहीं वरन तब तक रखनी चाहिए जब तक कि वहाँ एक भी जूता कम्पनी, एक भी जूता और यहाँ तक कि एक भी जूता पहनने लायक पैर बाकी है ।

तो बात चर्चित हुए मुन्तज़र की । वास्तव में कई बरसों से ईराक का आहत स्वाभिमान फिर गर्व से सिर उठाने के लिए एक मौके का मुन्तज़र था सो वह मौका पत्रकार मुन्तज़र ने उपलब्ध करवा दिया । उस बन्दे के वे जूते लगभग ५० करोड़ रुपये में खरीदने की बोली लग गयी है । कहते हैं उन्हें नष्ट कर दिया गया है । अच्छा हुआ जो नष्ट कर दिया वरना कोई न कोई उसे खरीदता, उसका स्मारक बनवाता, और फिर कोई पंथ खड़ा हो जाता । मतलब कि विवादास्पद श्रद्धा का एक और अखाड़ा तैयार हो जाता । कट्टर, अतार्किक और कर्महीन केन्द्र ही खुराफातों की जड़ बनते हैं । सभ्यताओं की इस तथाकथित लड़ाई में संसार अन्ध-श्रद्धा की इस विडंबना को भली भाँति अनुभव कर रहा है ।

तो ईराकी, मुस्लिम और अमरीका-विरोधी गौरव के इस केन्द्र मुन्तज़र की चर्चा पूरी होने से पहले ही इस दीवाने ने माफी माँग ली । पटाखा फुस्स्स हो गया । इसका मतलब है कि यह कृत्य किसी महान दर्शन या विचार से सम्बंधित नहीं था । मुम्बई कांड में गिरफ़्तार कासब भी आतंकवादी वीरता दिखाने के बाद प्राणों की भीख माँग रहा है । भगत सिंह, आजाद, अशफाकुल्ला, राजगुरु, बिस्मिल ने तो माफ़ी तो दूर की बात है, जिस दृढ़ता और गर्व से जेल में रहे उससे अंग्रेज़ प्रभावित ही नहीं भयभीत तक थे । उन्होंने ऐसे अलौकिक संकल्प की कल्पना भी नहीं की थी । असेम्बली में बम विस्फोट के बाद भगतसिंह आसानी से भाग सकते थे पर वे भागने के लिए नहीं जान देने के लिए आए थे । वे चाहते थे कि मुक़दमा चले और वे ब्रिटिश सरकार ही नहीं वरन सारे संसार को बता सकें कि भारत क्या है, क्या चाहता है ? अंग्रेज़ तो चाहते थे कि भगत सिंह ज़रा सा माफी का संकेत दें और वे उन्हें छोड़ दें । जब भगत सिंह को फाँसी के लिए लेने आए तो वे शांत भाव से एक पुस्तक पढ़ रहे थे । हालाँकि अँग्रेजों ने उन्हें आतंकवादी बताने की कोशिश की पर क्या ऐसी शान्ति और दृढ़ता आतंकवादियों में हो सकती है? ऊधम सिंह ने लन्दन जाकर जालियाँवाला बाग के अपराधी को गोली मारी और भागने की बजाय गिरफ्तार हो गए, बोले मैं जो काम करने आया था वह कर दिया, अब तुम्हें जो करना है कर लो । यह है शहादत और वीरता । मुन्तज़र और कसाब के बहाने अपनी कुंठा को सहलाने वालों को अपना गर्व और श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए कोई सकारात्मक सोच और मार्ग अपनाने चाहिए ।

जहाँ तक मुन्तज़र के लिए उचित सलाह की बात है- उसे सबसे पहले जूता-कंपनियों से टेंडर आमंत्रित करने चाहियें कि जो कम्पनी ज़्यादा पैसे देगी वह अपने प्रक्षेपित जूतों को उसी कम्पनी का बता देगा । दूसरे, कार देने की पेशकश करने वाले भक्त को बैंक खाते में मर्सडीज़ की राशिः बैंक में जमा करवाने के लिए पत्र लिख दे । यद्यपि असली जूते नष्ट कर दिए गए हैं तो भी उसे यह प्रचारित करना चाहिए कि उसके पास वैसे जूतों का एक पुराना जोड़ा और है । जब अक्ल का अंधा और गाँठ का पूरा कोई भक्त संपर्क करे तो तत्काल बेच देना चाहिए क्योंकि ऐसी दीवानगी का नशा बहुत ज़ल्दी उतर जाता है । और उस मिस्री लड़की को जेल से छूट कर आने तक इंतजार करने के लिए लिख दे बशर्ते कि वह इंतजार कर सके । ऐसे मामलों में ज़ल्दी करनी चाहिए जैसे मोनिका लेवेंस्की और क्लिंटन ने अपने अपने सत्कर्मों का रोमांच तत्काल बेच लिया । समय निकल जाने के बाद तो पालक की गड्डी की तरह फेंकना ही पड़ता है ।

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१९ दिसम्बर २००८




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Jhootha Sach

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