मायावती जी,
बधाई हो । हमारी पेंशन में से पैसा बिल्कुल नहीं बचता वरना हम अखबारों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन छपवा कर आपको बधाई देते । आप हमारी मज़बूरी समझती होंगी । मात्र एक पत्र लिख कर ही काम चला रहे हैं । आशा है आप इसे सुदामा के चावल, शबरी के बेर, विदुर पत्नी का शाक और करमा बाई की खिचड़ी मान कर स्वीकार करेंगी । बधाई के दो कारण हैं- एक तो आपकी आत्मकथा का प्रकाशन और आपकी साफगोई । नरसिंह राव ने एक उपन्यास पंद्रह साल में पूरा किया । अपने इतने व्यस्त जीवन में से समय निकलकर लिखा जो आने वाले समय में लेखकों को, और राजनीति में उच्च मूल्यों को अपनाने के लिए भावी नेताओं को, प्रेरणा देगा । अज्ञेय जी ने पचास पृष्ठों की एक पुस्तक- 'कितनी नावों में कितनी बार' लिखी । उस पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया । हम जानते हैं कि आपकी इस एक हज़ार पृष्ठ की पुस्तक पर ये मनुवादी ज्ञानपीठ पुरस्कार तो दूर की बात है, अकादमी अवार्ड भी नहीं देंगें । पर कोई बात नहीं, प्रेमचंद और निराला को भी कोई पुरस्कार नहीं मिला था । सच्चा पुरस्कार तो जनता का प्यार होता है ।
गाँधी जी की आत्मकथा संसार की सर्वश्रेष्ठ आत्मकथाओं में से एक मानी जाती है क्योंकि उन्होंने इसमें ईमानदारी का परिचय दिया है । हमें तो आपकी आत्मकथा में गाँधी जी से भी ज़्यादा ईमानदारी और साफगोई लगी । आजकल के राजनीतिज्ञ बड़े घाघ, ढोंगी और झूठे होते हैं । एक दूसरे को देख कर ऊपर से हाथ मिलायेंगें, मुस्करायेंगे और अन्दर से गला दबाने की सोचेंगे । आपने ऐसा झूठ नहीं बोला । आपने तो साफ कहा है कि मैंने भारतीय जनता पार्टी को हमेशा जूते की नोक पर रखा है । वैसे जब कल्याण सिंह के साथ छः-छः महीने का समझौता हुआ था तब भी हमने उसी दिन लिख दिया था कि जब कल्याण सिंह का बैटिंग करने का नंबर आएगा तो आप पारी डिक्लेयर कर देंगी । और वही हुआ ।
हिट जोडी है ओपनर, माया-कांसीराम ।
पेवेलियन में जप रही, बी.जे.पी. श्रीराम ।
बी.जे.पी. श्रीराम, आयगी जब तक बारी ।
तब तक ये दोनों, घोषित कर देंगे पारी ।
कह जोशी कविराय, मारती माया छक्के ।
औ कल्याण गली में, ताकें हक्के-बक्के ॥
लोकतंत्र की शक्ति का, कैसा ठोस प्रमाण ।
क्रमशः कुर्सी पर रहें, माया और कल्याण ।
माया औ कल्याण, आज माया की बारी ।
छः महीने में उभर, आयगी फिर बीमारी ।
कह जोशी कविराय, हमें होती आशंका ।
सूर्पनखा फुँकवा ना दे, भाई की लंका ।
(संसदीय इतिहास का अनूठा प्रयोग । माया व कल्याण बारी-बारी से मुख्यमन्त्री होंगे । एक समाचार-२० मार्च १९९७ )
वास्तव में सच ही कहा है- 'ग्रेट मेन थिंक अलाइक' बस फर्क इतना ही हैं कि आपकी एक हज़ार पेज की पुस्तक छप गई और हमारे कुण्डलिया छंद 'संपादक के नाम पत्र' तक ही पहुँच पाए । वैसे कल्याण सिंह आपके राखीबन्द भाई हैं । उन्होंने आपको मुलायम सिंह के गेस्ट हाउस कांड से बचाया था पर इसके लिए अपने आभार प्रकट कर तो दिया और क्या चाहिए । आभार अपनी जगह और राजनीति अपनी जगह । प्रारंभिक दिनों में 'तिलक, तराजू और तलवार...' काव्य पंक्तियों में भी आपने स्पष्टता का परिचय दिया था । आशा करें कि वर्तमान में ब्राह्मणों पर दिखाया जा रहा प्रेम राजनीति नहीं बल्कि वास्तविक होगा ।
बात जूतों की । पहले राजपूत नुकीले जूते पहना करते थे कि यदि कभी हथियार उठाने का समय नहीं मिले तो जूतों की नोक पर, नहीं तो जूतों की नोक से ही शत्रु को घायल कर दें । शोले फ़िल्म में संजीव कुमार गब्बर सिंह को एक साथ दोनों जूतों से मारते हैं पर हमें यह फ़ोटोग्राफ़ी का करिश्मा ही अधिक लगता है । एक साथ दोनों जूतों से मारने से बेलेंस बिगड़ने का खतरा रहता है । ठोकर मारने या किक मारने में भी एक बार में एक ही पैर काम में आता है जिसका जो भी पैर चलता हो । सभी के दोनों पैर सामान भाव से नहीं चलते । बच्चा जब रास्ते में पत्थरों को ठोकर मारता चलता है तो माता-पिता उसे मना करते हैं क्योंकि इससे जूते टूटते हैं और जूते आपको पता है कि बहुत मँहगे आते हैं । आजकल जूते होते भी बहुत कोमल हैं । जूते की नोक पर मारने के लिए चमरौधे के जूते ठीक रहते हैं । वज़नदार, मज़बूत, खुरदरे और सस्ते भी । हमारे यहाँ अब भी गावों में चमरौधे के जूते बनते हैं जिनको पहन कर लोग काँटों की बाड़ पर भी चल लेते हैं । कहें तो भिजवायें दस-बीस जोड़ियाँ क्योंकि जब आप प्रधान मंत्री बन जायेंगी तो जूतों का कंज़म्पशन और भी बढ़ जाएगा ।
भारतीय राजनीति में इस कला को जयललिता ने भी काफी ऊँचाई प्रदान की है । उन्होंने इस कला से कभी कांग्रेस, कभी भा.जा.पा., कभी करूणानिधि सबको सम्मानित किया है । यहाँ तक कि शंकराचार्य को भी नहीं बख्शा । सुना हैं उनके पास दस हज़ार जोड़ी सेंडिल और चप्पलें हैं । आपके पास कितने जोड़ी हैं ? हमारे पास तो बस हवाई चप्पलों की एक जोड़ी है जो फट-फट तो बहुत करती पर उसमें मारक क्षमता बिल्कुल नहीं है ।
हमने जूतों के बारे में एक लेख लिखा था जो कादम्बिनी में छपा भी था । उसमें हमने जूतों के माहात्म्य का वर्णन किया था- बिना जूतों के सुदामा से लेकर मधु सप्रे और मिलिंद सोमण के जूतों के विज्ञापन तक का । उसमें हमने जूतों को अस्त्र और शस्त्र दोनों माना है- हाथ में लेकर मारो तो शस्त्र और फ़ेंक कर मारो तो अस्त्र । चाँदी का जूता ब्रह्मास्त्र होता है । दम लगाने पर भी 'जूते की नोकपर मारने' वाली बात उसमें छूट ही गई । वैसे जूता विवाद और संवाद, संधि और विग्रह- दोनों में काम आता है फ़र्क बस इतना है कि संधि और संवाद में जूतों में दाल बँटती है और विग्रह और विवाद में चाँद गंजी होती है । दूल्हे के जूतों को राजस्थानी में बिनोटा कहते हैं और गरीब के जीर्ण-शीर्ण जूतों को खूँसड़ा कहते हैं । जैसे कि उल्टी-सीधी हरकतें करने वाले बड़े आदमी को परमहंस कहते हैं और यदि वे ही हरकतें कोई गरीब आदमी करे तो उसे पागल कहा जाता है ।
हम आपके साहस और स्टाइल की दाद देते हैं लेकिन कामना भी करते हैं कि सब जगह से उपेक्षित ब्राह्मणों को अपनाने के बाद आप भाजपा की तरह से उनको भी जूतों की नोक पर नहीं मारेंगीं ।
आपका प्रशंसक,
रमेश जोशी
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Jhootha Sach
मजेदार . माया की महिमा कोई न जानी . फिर भी कल्याण सिंह ने पूरे ओवर खेले . एक बात कल्याण सिंह मायावती के राखी भाई नही रहे वह तो लालची टंडन थे .
ReplyDeleteजोशी जी क्या खूब लिखा है| ब्राह्मण भी तैयार रहे मायावती के जूते खाने, क्योकि मैडम बक्स्ती तो है नही किसी को | और आजकल तो वैसे भी जूता पुराण कुछ ज्यादा ही चल रहा है, जब से बुश जी को जूते पड़े है |
ReplyDeleteवाह जोशी जी वाह आपका लेख,
ReplyDeleteमायावती जी जिस तरह से भी पढेंगी उसी तरह से उन्हें काम आएगा। चाहे शीर्षक से चाहे शुरू से या फिर अंतिम पंक्तियां ही गुस्स्से-गुस्से में पढ ले। वाह वाह मेरी बधाई स्वीकारें इतना अच्छा व्यंग्य कसने के लिए।
ये पंकित्यां मुझे बेहद अच्छी लगी
"जैसे कि उल्टी-सीधी हरकतें करने वाले बड़े आदमी को परमहंस कहते हैं और यदि वे ही हरकतें कोई गरीब आदमी करे तो उसे पागल कहा जाता है ।"
धन्यवाद, आप सब को |
ReplyDelete@ धीरूजी, राखीबंध भाई में करेक्शन करने के लिए धन्यवाद | आपकी स्मरणशक्ति और पैनी पाठकीय नज़र की दाद देता हूँ |
@प्रकाशजी, धन्यवाद, जब ऐसे नेता हैं तो व्यंग्य कसना सरल हो जाता है, वरना बेहतर तो हो कि किसी को व्यंग्य लिखने का मौका ही न दे नेता लोग |