Dec 26, 2008

मौलाना संत और राष्ट्र-धर्म-हीन आतंक



मौलाना मसूद अज़हर,
बिना आदाब के ही बात शुरू कर रहे हैं । आदाब की ज़रूरत ही नहीं । आप तो बिना आदाब के ही दाब लेते हैं । उर्दू-हिन्दी शब्दकोश देखकर पत्र लिख रहे हैं क्योंकि आप ठहरे मौलाना । पता नहीं किस गलती की क्या सज़ा दे दें । हमें शब्दकोश में अज़हर और मसूद के मायने नहीं मिले, पता नहीं कैसे शब्दकोश हैं । नेपोलियन को भी अपने शब्दकोश में असंभव शब्द नहीं मिला था । हाँ, मौलाना का अर्थ ज़रूर मिल गया - वह व्यक्ति जिसे आलिम लोगों ने उसकी योग्यता देखकर मौलाना की उपाधि दी हो । मतलब कि यह एक मानद उपाधि है । सच्ची उपाधि तो मानद ही होती है । विश्वविद्यालय की पी.एच.डी. तो कोई भी दस बीस हज़ार में लिखवा लेता है । अभिनव बिंद्रा को केवल दस मीटर दूर से निशाना लगाने पर ही मद्रास विश्वविद्यालय ने पी.एच.डी. की मानद डिग्री दे दी फिर आप तो पाकिस्तान में बैठकर दिल्ली में निशाना लगा देते हैं आपको तो एक साथ दस-पाँच डी.लिट मिल जानी चाहियें थीं । मौलाना का एक अर्थ और मिला- दुखदायी । पर आप जैसे धर्म-प्राण व्यक्ति को 'दुखदायी' कहकर हम अपने प्राणों को संकट में नहीं डालना चाहते । धर्म- प्राण के भी दो अर्थ होते हैं- एक वह जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे और एक वह धर्म के लिए दूसरे के प्राण ले ले । प्राण देने से कोई फायदा नहीं है क्योंकि कहा है- 'शरीरमद्यं खलु धर्म साधनम्' । यदि शरीर ही नहीं रहेगा तो धर्म का क्या खाक पालन करेंगें । इसीलिए आपने अपने शरीर का पर्याप्त ध्यान रखा है । आपके प्यार से पाले पोषे शरीर के कारण ही आपके भक्त आपको 'हाथी का बच्चा' कहते हैं । ईसा, मूसा, बुद्ध, महावीर, कबीर, गाँधी आधी पसली के आदमी थे । तभी आज उन्हें कौन पूछता है । जब कि आपकी चर्चा से अख़बार भरे पड़े हैं । इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि आप, लोगों के द्वारा लोकतांत्रिक तरीके से मान्यता प्राप्त विद्वान और धर्म-प्राण व्यक्ति हैं ।

आजकल आपके धर्म और राष्ट्रीयता को लेकर कई सवाल उठाये जा रहें हैं । अब इनको कौन समझाये । आप तो पहले ही कह चुके हैं कि आप राष्ट्र की अवधारणा को ही नहीं मानते । फिर आपकी क्या राष्ट्रीयता ? ज़रदारी ने भी आपकी बात का समर्थन ही किया है कि आतंकवादी का कोई देश नहीं होता । अब या तो आपका पाकिस्तान क्या कोई भी देश नहीं हैं और यदि आपका देश पाकिस्तान हैं तो आप आतंकवादी नहीं हैं । सीधा सा गणित हैं । पता नहीं लोग क्यों नहीं समझते । रही बात धर्म की तो उसके लिए भी कह दिया गया है कि सच्चा मुसलमान आतंकवादी नहीँ हो सकता इसलिए या तो आप सच्चे मुसलमान नहीं हैं या फिर आतंकवादी नहीं हैं । आपको सच्चा मुसलमान न मान कर क्या किसी को अपना सिर फुड़वाना है ? इस प्रकार आप सच्चे मुसलमान हैं और आतंकवादी कभी नहीं हो सकते जो आपको आतंकवादी मानते हैं वे धर्म को नहीं जानते ।

अब रहा प्रश्न आपके नज़रबंद होने या जेल में होने या पाकिस्तान में होने का तो इस बारे में पहले कहा गया कि आप जेल में हैं फिर कहा गया कि नज़रबंद हैं और अब कहा जा रहा है कि पता नहीं आप कहां हैं । आप ठहरे सच्चे संत । संत तो सबके होते हैं । हवा का, पानी का, सच्चे संतों का, फकीरों का, खुशबू का कोई घर या ठिकाना होता है क्या ? जब, जहाँ, जिसको आपकी दया की ज़रूरत होती है आप पहुँच जाते हैं । १९९४ से १९९९ तक भारत की जेल की भी शोभा बढ़ा चुके हैं । जब आपको गिरफ्तार किया गया था तो आपके पास ७० हज़ार डालर नक़द मिले थे । हमें तो चालीस साल की नौकरी के बाद भी इतने पैसे नहीं मिले । पर हमने काम भी क्या किया था । बच्चों को दो अक्षर सिखाये थे । आपकी बात अलग है आप ने तो अपने चेलों को अपना लोक और दूसरों का परलोक सुधारना सिखाया है । आपकी और हमारी क्या तुलना ।

आपका दर्शन है कि सारे संसार को इस्लाम के शासन के नीचे लाना । ठीक भी है, जब इस्लाम नहीं था तो सारी दुनिया दुखी थी और जब, जहाँ-जहाँ इस्लाम आ गया वहाँ -वहाँ दुनिया सुखी हो गई । इस लिए सारी दुनिया को सुखी बनने के लिए आपको कुछ भी कर के सारी दुनिया में इस्लाम लाना है । वैसे दो हज़ार साल में सारी दुनिया ईसाई नहीं हो सकी और डेढ़ हज़ार साल में आधी दुनिया भी मुसलमान नहीं हो सकी । हो सकता है आप अब तक के सबसे काबिल मौलाना हुए हों ।

वो क्या कहते हैं कि - कुतिया समझे कि गाड़ी उसके बल पर चलती है ।

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२० दिसम्बर २००८



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Jhootha Sach

3 comments:

  1. वाह सर वाह व्यंग्य हो तो ऐसा कोई भी फालतू शब्द नहीं कोई भी फालतू बात नहीं लेकिन हर शब्द एक के साथ जुड़्ता, हर वाक्या जैसे एक से दूसरे के साथ हाथ से हाथ मिला कर चलता हुआ। आतंकवादियों को आईना दिखाता हुआ। आपके लेखन शिल्प को सलाम।

    "धर्म- प्राण के भी दो अर्थ होते हैं- एक वह जो धर्म के लिए अपने प्राण दे दे और एक वह धर्म के लिए दूसरे के प्राण ले ले" वाह वाह क्या व्यंग्य।

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  2. ब्लॉग से पहले पत्र पत्रिकाओं में भी लिखता रहा हूँ | व्यंग कीदो पुस्तकें गद्य में भी ज़ल्दी ही आ रही हैं | लिखने वाले के साथ साथ अच्छे पढ़ने वाले भी उतने ज़रूरी हैं | आप तक बात सीधी-सीधी पहुँची| शुक्र है|
    रमेश जोशी |

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  3. बहुत ही सुन्दर व्यंग है.

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