Mar 17, 2010

मना करने का अधिकार

सोनिया जी,
नमस्ते । राजस्थानी में एक कहावत है- 'एक नन्नो सौ दुःख हरै' मतलब कि एक बार साफ मना कर देने से हज़ार समस्याएँ दूर हो जाती हैं । जो लोग सीधा उत्तर दे देते हैं उन्हें कम समस्याओं का सामना करना पड़ता है और उनका समय भी कम ख़राब होता है । कुछ लोगों में मना करने का साहस नहीं होता सो वे खुद भी परेशान होते हैं और दूसरों को भी परेशान करते हैं । इसीलए इस संदर्भ में राजस्थान में एक और कहावत चलती है- 'दाता सें सूम भलो झट से उत्तर दे' । भिखारी का भी समय कीमती होता है । यदि कोई भीख देने की बजाय उसे उपदेश देने लग जाए तो चल लिया उसका तो धंधा ।

आज से कोई पैंतालीस बरस पहले की बात है । नौकरी लगे कोई तीन-चार साल ही हुए थे । हम पर कोई खास ज़िम्मेदारी तो थी नहीं । सो आदर्श की बातें सूझती थीं । एक बार एक हट्टा-कट्टा व्यक्ति हमारे घर भीख माँगने आ गया । हमने उसे श्रम का महत्व समझाना शुरु कर दिया । कहा- 'तुम हट्टे-कट्टे हो । क्या भीख माँगते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती ?' बोला- 'आती तो है पर साहब, शर्म करने से काम तो नहीं चलता । यह धंधा ही ऐसा है । अगर नेता झूठ नहीं बोले और वोट माँगने में शर्म करे या वोटरों के ताने सहकर भी हें, हें करके वोट के लिए निवेदन नहीं करता रहे तो काम कैसे चलेगा ? ऐसे क्षणों में स्वाभिमान को ताक पर रखना पड़ता है । सो हम भी शर्म करना अफोर्ड नहीं क रसकते । वैसे यदि आप मुझे काम दिलवा दें तो मैं सच कहता हूँ कि मैं उसी दिन से भीख माँगना छोड़ दूँगा' ।

उस समय हम सीमेंट फेक्ट्री के स्कूल में काम करते थे । उस समय ऑटोमेशन का ज़माना तो था नहीं । इसलिए फेक्टरियों में तीन-तीन, चार-चार हज़ार आदमी काम किया करते थे । कर्मचारियों का एक छोटा-मोटा क़स्बा सा ही बस जाया करता था फेक्ट्री के आसपास । स्कूल में मज़दूरों से लेकर अफसरों तक के बच्चे पढ़ते थे । हमने सोच किसी से भी कहेंगे तो एक आदमी की नौकरी लगाना कौन बड़ी बात है । सो हमने उसे कह दिया कि हम किसी से बात करेंगे ।

दो चार आदमियों से बात करने पर ही हमारा भ्रम दूर हो गया । पर उस हट्टे-कट्टे भिखारी ने हमारा पीछा पकड़ लिया । दो-चार दिन का गैप देकर वह हमारे घर आने लगा । अब तो हालत यह हो गई कि हम उससे आँखें चुराने लगे, उससे कन्नी काटने लगे पर वह था कि पीछे ही पड़ गया । अंत में हमें उसके सामने हाथ जोड़ कर, भीख जैसे पवित्र व्यवसाय की निंदा करने के अपराध के लिए माफ़ी माँगनी पड़ी । अब हम किसी काम को कमतर नहीं समझते । अब तो हमें चोर, दलाल, घूसखोर, घोटालिए- सबके काम बड़े मेहनत के लगने लगे । बस अपना ही काम मुफ़्त का माल पेलने का धंधा लगने लगा ।

माफ़ कीजिएगा । बात कहाँ से कहाँ पहुँच गई । आप तो एक दम 'टू द पाइंट' बात करने वाली हैं और हम हैं कि रामायण लेकर बैठ गए । तो बात साफ़ उत्तर देने की हो रही थी । अब बजट की ही बात ले लीजिए । पहले बजट पेश किया जाता था । फिर सांसद उस पर चर्चा करते थे । किसी चीज पर दस प्रतिशत टेक्स बढ़ाया जाता था । कई दिन तक झिक-झिक चलती थी और फिर कहीं महीनों की बहस के बाद पाँच प्रतिशत पर सुलह होती थी । जैस कि दुकानदार पाँच की चीज के बीस बताकर मोल भाव करते-करते दस में दे देता है । अबकी बार भी सांसद यही सोच रहे थे । जैसे ही प्रणव दा ने डीजल के दाम बढ़ाने की बात की तो पहले से तय करके आया विपक्ष एक ही झटके में उठ कर चला गया । एक बार तो लगा कि पता नहीं किस तूफान का संकेत है । मन मोहन जी ने भी धीमे से कहा कि दाम बढ़ाना ज़रूरी है । प्रणव दा ने भी दाम बढ़ाने की मज़बूरी बताई । पर आवाज़ में दम नहीं था । इसके बाद जब आपने साफ़ कह दिया कि दाम काम नहीं किये जाएँगें तो सब की बोलती बंद हो गई जैसे कि भेड़ के कान पर जूती रख दी हो । कोई हल्ला गुल्ला कुछ नहीं । लगता है अब इस पर कोई बहस भी नहीं करेगा क्योंकि सब जान गए हैं कि पतनाला वहीं गिरेगा ।

ठीक है कि अब आप अच्छी हिंदी बोल लेती हैं पर ग्रास रूट वाली बातें समझाना आसान नहीं है । सो भेड़ के कान पर जूती रखने के बारे में बताते चलें कि भेड़ को नीचे पटक कर उसके कान पर जूती रख दी जाती है । भेड़ जूती के प्रभाव से चुपचाप पड़ी रहती है । इसके कुछ देर बाद धीरे से जूती उठा लेने के बाद भी भेड़ यही समझती रहती है कि उसके कान पर जूती रखी हुई है । और वह बिना जूती के भी पड़ी रहती है । भले ही जूती उठा ली जाए । सो आपने विपक्ष के कान पर जूती रख दी है । अब यह सत्र मज़े से कट जाएगा । आगे की आगे देखी जाएगी ।

आगे भी बजट पेश होंगें, और भी बड़े-बड़े फैसले होंगें । पर हमारा तो यही कहना कि काम करने वाले काम करेंगें । आप अकेली जान सारे काम कर भी नहीं सकतीं पर यह जो 'मना करने का अधिकार' है उसे अपने पास ही रखियेगा । यह अधिकार ही पावर की कुंजी है । इसके बारे में भी एक कहानी सुनाते चलें । इसलिए भी कि बैठकों में कोई भी जिंदा भूमिका नहीं निभाता । सब हाँ में हाँ मिलते हैं । कहानी सुनाना तो दूर की बात है ।

एक बार किसी घर में एक भिखारी आया । सास मंदिर गई हुई थी । बहू ने भीख देने से मना कर दिया । जब भिखारी वापिस जा रहा था तो रास्ते में उसे सास मिल गई । भिखारी ने कहा- 'माँजी, मैं घर गया था । आप तो थीं नहीं सो बहू जी ने मना कर दिया' । सास ने नाराज़ होकर कहा- 'वह कल की आई, आज से ही मना करने वाली हो गई । चलो मेरे साथ' । भिखारी को आस बँधी । आगे-आगे सास और पीछे-पीछे भिखारी । घर पहुँच कर सास ने कहा- 'दरवाजे पर रुको' । सास अन्दर गई और फिर दरवाजे पर आकर बोली- 'अब मैं कहती हूँ कि कुछ नहीं मिलेगा । जाओ' ।

सो यह है सास का अधिकार और सास का रुतबा । आपने इस विधा पर अच्छा अधिकार कर लिया है । ठीक भी है, आने वाले समय में घर में भी काम आएगा यह अनुभव । लोग सत्ता केंद्र को लेकर पता नहीं क्या-क्या बातें किया करते थे । और सारा नज़ला गिरता था बेचारे मनमोहन जी पर । हम भी भ्रम में थे । पर अब प्रणव दा और विपक्ष दोनों को ही बात समझ में आ गई होगी, वैसे भी और ऑफिशियली भी ।

ठीक भी है, जो है, वह साफ हो जाए तो क्या बुरा है- बहू को भी और भिखारी को भी ।

अब हमें भी जो लिखना होगा वह डाइरेक्ट आप को ही लिखेंगे क्योंकि अंत में फैसला तो आपको ही लेना है ।

११-३-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

2 comments:

  1. बहुत ही अच्‍छा व्‍यंग्‍य एकदम सधा हुआ सटीक। बधाई।

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