Mar 9, 2010

माई नेम इज नोट खान


( कश्मीर से भाग कर आतंकवादी बन गए तथाकथित भटके भाइयों के लिए उमर अब्दुल्ला और चिदंबरम की पैकेज की योजना- १२-२-२०१० )

३ फरवरी २०१० को हम और तोताराम अच्छे तालिबान बनकर काबुल में अमरीकी सेना के प्रमुख से पैकेज लेने गए । हमने सोचा ही नहीं था कि अमरीका से कुछ लेना कितना कठिन हो सकता है । पैकेज मिलना तो दूर पाकिस्तानी सीमा सुरक्षा बल के हाथों किराए के रुपए और भारतीय सीमा सुरक्षा बल को कम्बल सौंप कर दो बुद्धू मास्टरों ने भारत में प्रवेश किया यानि कि हम और तोताराम सीमा पार कर पंजाब में आ गए । यह तो सुना था कि लौट कर बुद्धू घर को आते हैं पर यह पता नहीं था कि बुद्धुओं को घर लौटने में कितना समय लगता है । नौकरी की तो घर के आसपास सो घर लौटने में कभी कोई परेशानी नहीं आई । ज्यादा से ज्यादा यही हुआ कि एक की जगह दो बसें बदलनी पडीं ।

इस बार घर लौटने में एक नई बात थी । रुपयों का नुकसान और मूर्ख बनने का दुःख । मूर्ख तो खैर ज़िंदगी में बहुत बने पर यह मूर्खता या तो नेताओं के आश्वासनों पर विश्वास करने या किसी चीज़ के पैसे ज्यादा देने तक ही सीमित रही । या फिर ज्यादा से ज्यादा यह हुआ कि किसी बच्चे ने झूठा बहाना बनाकर छुट्टी ले ली । इस तरह के मूर्ख बनाए जाने का अवसर पहली बार आया था । किसी को बताते हुई भी शर्म आ रही थी । जेब में पैसे नहीं । सुदामा जिस तरह पोरबंदर से द्वारका गए थे- रास्ते में माँगते खाते, कुछ वैसे ही यात्रा करने की हमारी नौबत आ गई थी । कहीं गुरुद्वारा मिलाता तो वहाँ लंगर खा लेते । दाढ़ी बढ़ गई थी । कम्बल के अभाव में कभी तौलिया तो कभी गमछा या कभी कभी तो पायजामा ही कानों पर लपेट कर ठंड से बचते रहे । रात को ठहरने की कोई सुविधा न होने और रात की कड़ाके ठंड से बचने के लिए रात को यात्रा करना ठीक समझा गया ।

रास्ते का पता नहीं था । दिशासूचक यन्त्र भी हमारे पास नहीं था । जब देश को चलाने वालों को ही दिशा का ज्ञान नहीं हो तो उनके अनुयायी हम अच्छे नागरिकों को दिशा का ज्ञान कैसे हो सकता था । पर हिम्मत बाँध कर कोलंबस की तरह चलते गए । कभी तो हिंदुस्तान का किनारा दिखाई देगा । जब चलते-चलते कोई आठ-दस दिन हो गए तो किसी स्थान पर पहुँचे । पूछा तो पता चला कि हम कश्मीर में हैं । थोड़ा आगे चलने पर देखा कि एक धार्मिक स्थान के अन्दर से गोलियाँ चल रही हैं । धार्मिक स्थान को बचाने के चक्कर में सेना और पुलिस के कई जवान शहीद हो रहे थे । उनसे कुछ दूर पर एक टेबिल कुर्सी लगाए कुछ लोग बैठे हुए थे ।

टेबल कुर्सी लगाए उन लोगों को किसी तरह का कोई डर नहीं लग रहा था । वे बहुत ही शांत चित्त से बैठे हुए थे । हमनें साहस करके पूछा- साहब, आप यहाँ से हट क्यों नहीं जाते । गोलियाँ चल रही हैं, कहीं कोई गोली प्रसाद स्वरूप आपकी तरफ आ गई तो मुश्किल हो जाएगी । उनमें से जो जवान सा दिख रहा था, बोला- नहीं ऐसा नहीं हो सकता । हमारी तरफ ये गोलियाँ कभी नहीं आतीं । ये तो साधारण लोगों को ही लगती हैं । हम तो जन सेवक हैं । इन गोलियों से हम नहीं मरते ।

हमने फिर कहा- पर यहाँ बैठे रहने से क्या फायदा । कहीं दूर जाकर बैठ जाइए । वे बोले हम यहीं रहेंगे । हम एक मिशन पर हैं । हम इन आतंकवादियों मतलब कि भटके हुए भाइयों को राष्ट्र की मुख्य धारा में मिलाने और उन्हें माफ़ करके पैकेज देने आए हैं ।

अब हमारी कुछ हिम्मत बढ़ी क्योंकि हमें भी तो पैकेज का कुछ अनुभव हो चुका था, भले कटु ही सही । हमने कहा- पर ये तो गोली चला रहे हैं । पैकेज तो समर्पण करने और माफ़ी माँगकर मुख्य धारा में लौटने वालों को दिया जाता होगा ना । क्या इन लोगों ने आप से माफ़ी माँग ली है । वे बोले- नहीं । ये लोग कभी माफ़ी नहीं माँगते । हम ही इन्हें पकड़ कर ज़बरदस्ती माफ़ी दे देते हैं । आप तो जानते ही हैं कि हमारे शास्त्रों में लिखा है-
क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात ।
सो ये उत्पात कर रहे हैं और हम इन्हें क्षमा कर रहे हैं । अगर ये क्षमा नहीं माँगेंगे तो हम किसी और तरीके से इनके नाम और पते मालूम करके इनके नाम से पैकेज बना कर इनके घर पहुँचा देंगे । पैकेज दिए बिना काम चलने वाला नहीं है । पहले भी पाँच-छः साल पहले पैकेज दिया था । अब उसके पैसे इनके पास ख़त्म हो गए । अब फिर पाँच साल के लिए पैकेज देना है । पहले भी इस देश सेवा के काम के लिए चौबीस हज़ार करोड़ का पैकेज मिला था । अब महँगाई बढ़ गई है सो कम से कम पचास हज़ार करोड़ का पैकेज तो देना ही पड़ेगा ।

हमने कहा- भाई जान, इतना पैसा कहाँ से आएगा । पहले ही देश कर्ज़े में डूबा हुआ । मंदी की मार अलग से चल रही है । वे बोले- पैसे की ऐसे कामों के लिए कमी नहीं है । और फिर जिसे कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बना कर रखना है वे टेक्स बढ़ाकर भी कहीं न कहीं से देंगे ही । और फिर इसमें उनके बाप का जाता भी क्या है ।

हमने सोचा- यहाँ पैकेज की शर्तें आसान लगती हैं । देने के लिए टेबल लगा कर बैठे हैं । क्यों न यहीं किस्मत आजमाई जाए । काबुल न सही कश्मीर सही । हमने कहा- भाई साहब, जब तक वे भटके हुए भाई साहब धार्मिक स्थान से बाहर नहीं निकलते और पैकेज देने के लिए आपकी पकड़ में नहीं आते तब तक इस शुभ कार्य का आरम्भ हमीं से कर लीजिए ।

उसने हमारी तरफ घूर कर देखा और पूछा- तुम्हारा नाम क्या है ? उत्तर तोताराम ने ही दिया- 'माई नेम इज पंडित तोताराम' । वह पैकेज वितरक कुछ नाराज होकर बोला- साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहते- 'माई नेम इस नोट खान' । तुम पंडित लोगों को तो हमारे भटके भाइयों ने भगा दिया था । अब क्यों एक गोली ख़राब करवाने और प्रशासन को बदनाम करवाने आए हो । एक ट्रक जम्मू जा रहा है उसमें बैठावा देते हैं वहाँ से दिल्ली की सीधी गाड़ी मिलेगी । वहाँ एम्स के सामने कई पंडितों को छोटी-छोटी दुकानें दे रखी हैं और वहीं कहीं आसपास उनके केम्प भी होंगे । वहाँ से कुछ मदद की व्यवस्था हो सके तो ले लेना । और फिर जब राहुल गाँधी, सचिन और आशा भोंसले सभी ने कह दिया है कि मुम्बई सभी की है तो यहाँ कश्मीर में ही क्या रक्खा है? मुम्बई में जाकर बस जाओ । अगर ठाकरे साहब बसने दे ।

हमने सोचा- यहाँ से तो निकलें फिर चाहे कुँए या खाई कहीं गिर पड़ें । और हम और तोताराम उन पैकेज वितरकों को धन्यवाद देकर ट्रक में चढ़ गए ।

८-३-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

2 comments:

  1. आज के सामाजिक और राजनितिक विसंगती पर एक करारा तमाचा.

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