Mar 12, 2010

थरूरफोर्ड अंग्रेजी-हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी

थरूर जी,
आपने बहुत सी किताबें लिखी हैं । ट्विट्टर पर भी टर्राते हैं, पत्रकार सम्मलेन को भी संबोधित करते हैं । पता नहीं, मीडिया वाले लोग आपको बनाते है या आप उनको । पर यह ज़रूर है कि आप जब भी मुँह खोलते हैं तो कोई न कोई विवाद खड़ा हो जाता है । रंडी, नेता, फिल्म वाले, लेखक, कवि आदि जितना विवादों में रहते हैं उतना ही कमाते हैं जैसे सलमान रुश्दी या राखी सावंत । आप तो खैर, वास्तव में लेखक हैं । विवादित होने पर तो मोनिका लेवेंस्की भी अपनी 'वह' लम्पट लीला लिख कर करोड़ों कमा गई । भले ही लोग आपको समझ न पाते हों पर अखबारों में आपका एक-एक शब्द कई दिनों तक चलता है । हमारे एक मित्र का एक शेर है-
जब तक एक विवाद रहा मैं ।
तब तक सबको याद रहा मैं ।

इससे पहले भी हमें आपको समझाने के लिए अपना अमूल्य समय देना पड़ा । अब देखिये न, होली मना रहे थे कि पता चला कि आपने सऊदी अरब में अंग्रेजी का एक शब्द बोल दिया और मीडिया वाले ले भागे । और हमें फिर आपको पत्र लिखना पड़ गया ।

इससे पहले भी 'केटल-क्लास', और नेहरू जी पर कमेन्ट के लिए झिक-झिक हुई थी । पता नहीं आपकी अंग्रेजी कुछ है ही ऐसी या आप जानबूझ कर ऐसे शब्द छाँट-छाँट कर लाते हैं । हमारे एक मित्र हैं । अंग्रेजी धड़धड़ बोलते हैं । वे लोगों को समझ में आने वाली अंग्रेजी भी बोल सकते हैं पर जब भी किसी को प्रभावित करना, डराना हो तो वे आपकी तरह की न समझ में आने वाली और विवादास्पद अंग्रेजी बोलते हैं ।जब महिलाएँ उपस्थित होती हैं तो वे 'संवाद' के लिए 'इंटरकोर्स' शब्द का प्रयोग करेंगे । वैसे 'इंटरेक्शन', 'डायलाग' शब्द सबके लिए सुविधाजनक हो सकता है । लोग उलझने से घबराते हैं सो नहीं बोलते ।
आपको हर बार अलग से समझाना पड़ता है कि आपके शब्द का मतलब यह था । इसमें सब का समय बर्बाद होता है और अंत में बात भूल में पड़ जाती है केवल विवाद याद रह जाता है । यदि आप कोई बात कहना चाहते हैं तो उसी शब्दावली में कहें जिसे लोग ढंग से समझ लें । यदि चर्चित होने के लिए कहते हैं तो आपकी मर्जी । पर कभी-कभी चर्चित होने का चस्का महँगा पड़ जाता है । नाम के चक्कर में केवल बदनाम होकर ही पीछा नहीं छूटता, कई बार पिटाई भी हो जाती है ।

'आम' शब्द का एक पर्यायवाची बड़ा अप्रचलित सा और स्त्री के किसी अंग विशेष के लिए रूढ़ हो चुका है तो कोई भी उसे 'आम' के स्थान पर यूज नहीं करता । क्या आप बाज़ार में किसी आम बेचने वाली से आम के 'उस' पर्यायवाची शब्द का उपयोग करते हुए आम माँगने का साहस दिखाएँगे ? यदि ऐसा किया तो क्या होगा यह आप भी जानते हैं और हम भी । लोग पिटाई पहले करते हैं और बाद में पिटित व्यक्ति से ही पूछते हैं कि बता मैंने तुझे क्यों पीटा । भाषा के दादा कोंडके सिद्धांत को मानने वालों के पास ऐसे बहुत से शब्द होंगे जो कानूनी रूप से भले ही ठीक हों पर प्रचलन में भयंकर अर्थ देते हैं ।
भाषा के बारे में आपको ही नहीं बहुत से लेखकों को यह भ्रम है कि अप्रचलित और कठिन शब्दों के प्रयोग से रचना श्रेष्ठ हो जाती है । बड़े-बड़े तीस मार खाँ पुस्तकालयों में धरे रह गए और कबीर अपनी सादगी के बल पर आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं । सो लोगों से बात करनी है तो लोग की शब्दावली में करें ।

हमारे गाँव में एक बनिया था । उसके पास कोई पूँजी नहीं थी और न ही व्यापारिक बुद्धि । उसने एक दुकान कर रखी थी जिसमें ऐसी चीजें रखता था जो कभी-कभी ही किसी को ज़रूरत पड़ती थी । उसकी दुकान टूटी-फूटी सी थी । उसे किसी सजावट की ज़रूरत भी नहीं थी क्योंकि उसके पास स्वाभाविक रूप से तो कोई आता ही नहीं था । जब अड़ जाती तो आता था । सो वह भिड़ते ही ग्राहक को कहता- देख कर आ गए सब जगह । कहीं नहीं मिली ना । अब सुन, इसके इतने रूपए लगेंगे, तेरी सात बार गरज पड़े तो ले जा । बेचारा ग्राहक क्या बोले । और मोल-भाव करने का तो प्रश्न ही नहीं ।

स्वाभाविक है, ऐसे दुकानदार के यहाँ ग्राहकों की भीड़ होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । ग्राहक भूले भटके ही आते । न ही दुकान में ऐसी कोई चीज जिसे कोई जानवर, चिड़िया, चूहे या मक्खियाँ खा सकें । न महिलाओं और न ही बच्चों के मतलब की कोई चीज । सो उस बनिए को समय ही समय ही रहता । जब चाहे बिना बात ही बाज़ार में घूमता रहता । एक हिन्दी-इंग्लिश-डिक्शनरी पता नहीं कहाँ से उसके पास आ गई । दुकान में तो कोई काम था नहीं सो सारे दिन उसे पढ़ता रहता । नए-नए शब्द ढूँढ़ता रहता और जो अपने को पढ़ा-लिखा समझते थे उनसे सबके सामने पूछता था- देखिये साहब, मैं कोई ज्यादा पढ़ा-लिखा तो हूँ नहीं । एक शब्द समझ में नहीं आ रहा था । आप बता दें तो बड़ी मेहरबानी होगी । पुराने लोग तो जानते थे पर अगर कोई नया आदमी फँस गया तो तमाशा बनकर जाता था ।वह किसी ऐसे हिंदी शब्द का अंग्रेजी समानार्थक पूछता जिसका प्रयोग करने की न तो किसी लेखक को ज़रूरत पड़ी होगी और न ही किसी मास्टर के पढ़ाने में आया होगा । निरुत्तर और शर्मिंदा होने के अलावा कोई चारा नहीं बचता । लोग उससे कन्नी काटने लगे । आपके साथ भी कहीं ऐसा ही न हो कि लोग आपके पत्रकार सम्मलेन में ही न आएँ या आपका समाचार ही न पढ़ें या आपको उस बनिए की तरह समझने लगें ।

वैसे एक और तरीका भी हो सकता है कि आप अपनी एक डिक्शनरी छपवा लें और आपके सम्मलेन में पत्रकारों को सप्रेम और निःशुल्क बँटवा दें जिससे वे किसी शब्द का वही अर्थ समझें जैसा कि आप चाहते हैं । किसी शब्द का अर्थ समझ में न आने पर उसे कंसल्ट कर लें । इससे आपका प्रचार भी होगा और विवाद भी नहीं होगा वरना तो लोगों को अपने शब्दों का अर्थ समझाते-समझाते आपकी हालत हमारे एक परिचित जैसी हो जाएगी । उनका तकियाकलाम था- 'मतलब कि' । कुछ इस तरह बोलते । 'भाइयो मतलब कि बहनो, मैं मतलब कि आपके सामने बोलने के लिए मतलब कि खड़ा हुआ हूँ' यह तो और भी विचित्र भाषा हो जाएगी ।

होली वाले दिन हमने आपके शब्द 'इंटरलोक्यूटर' को सुनने के बाद अपनी पत्नी से बात की । वह आप से भी बड़ी अंग्रेजी की विद्वान है । आप तो खैर, अंग्रेजी बोलते ही हैं वह तो पोते-पोतियों को शू-शू तक अंग्रेजी में करवाती है । सो हमने पत्नी से कहा- आप को समय हो तो आप हमारी इंटरलोक्यूटर बन जाओ । पत्नी ने उत्तर दिया- तुम्हें इस उम्र में भी फालतू बातें सूझती हैं । यह कोई उम्र है इन बातों की । आप समझते थे कि इस शब्द से बड़ी दूर की कौड़ी लाए हैं और देख लिया न हमारी वरिष्ठ नागरिक पत्नी ही समझ गई । हमने भी उस समय से साहित्य की टाँग तोड़नी शुरु कर दी थी जब आप यू.के.जी. में जाने लगे थे । हम संयुक्त राष्ट्र संघ न जा सके पर वैसे हमें कई संघों का अनुभव है । अगर ध्यान से समझने की कोशिश करेंगे तो 'इंटर लोक्यूटर' का अर्थ मध्यस्थ ही निकलेगा वरना कोई पूछने वाला हो तो पहले तो सउदी अरब गए ही क्यों थे और फिर वहाँ यह चर्चा की ही क्यों । अरे भाई, ऐसे ही इशारों में बात की जाती है । गाँव में बहू या सास ऐसे ही गाय-बकरी के बहाने एक दूसरे को सुनाती रहती हैं।

सो भाई जान, अगर इण्डिया में अंग्रेजी बोलनी ही है तो थोड़ा लालू जी की संगति करें । जिससे नाराज़ होना तो दूर की बात है बल्कि आपकी अंग्रेजी से लोगों का मनोरंजन ही होगा । आगे आपकी मर्जी । पर अब हम से और पत्र की आशा न करें । हमें और भी ज़रूरी काम हैं आपके फटे में टाँग फँसाने के अलावा ।

गए थे मनमोहन जी के साथ तो आराम से खाते-पीते और परचेजिंग करके चले आते और टी.ए., डी.ए. का बिल सबमिट कर देते और बात ख़त्म ।

३-३-२०१०

पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)




(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

2 comments:

  1. हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें ............हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें हें .......हें हें हें हें हें हें हें हें हें ... हुडूत

    ReplyDelete
  2. लेख तो बढ़िया लगा ही आपका , नामकरण तो गजब का किया है आपने थरुर का ।

    ReplyDelete