Mar 22, 2010

मोह न नारि, नारि के रूपा



मायावती भैन जी,
जय भीम, जय कांसीराम, जय दलित । आपने १५ मार्च को महारैली की और जनता ने आपको नोटों की माला पहनाई । जिनको कोई माला पहनाने वाला नहीं मिलाता वे लोग तो अपने खर्चे से माला पहनते हैं । और वे ही ईर्ष्यावश आपकी नोटों की माला का विरोध करते हैं । लोकतंत्र में गण ही गणेश है, जन ही जनार्दन है, नर ही नारायण है । अब जनता की इच्छा का सम्मान तो करना ही पड़ता है । अब यह तो जनता पर निर्भर है कि वह किसको कैसी माला पहनाती है । जनता का क्या, वह चाहे तो किसी की जूतों की माला पहना दे, किसी को गेंदे के फूलों की, तो किसी नोटों की ।

हम तो कहते हैं कि किसी को उपहार देना हो तो नकद ही देना चाहिए । मान लीजिए कि किसी को जन्मदिन या किसी और अवसर पर सभी लोग जूते ही जूते उपहार में दे दें या पेन ही पेन उपहार में दे दें, तो वह इतने पेनों या जूतों का क्या करेगा । हमारे एक मित्र हैं जो पूजा-पाठ करवाते हैं । पूजा के एक बाद सभी उन्हें पाँच वस्त्रों के नाम पर कुरता, पायजामा, गमछा, बनियान और हवाई चप्पलें देते हैं । अब वे इतने वस्त्र और चप्पलें पहन तो नहीं सकते । तो वे दिल्ली के किसी संडे मार्केट में जाते हैं और सड़क के किनारे ये सब चीजें रखकर बेचते हैं । यदि सभी भक्त उन्हें पाँच वस्त्रों के बदले में भले ही कुछ कम, पर नकद रूपए ही दे दें तो उन्हें भी परेशानी न हो और यजमानों को भी कुछ सस्ता पड़ जाए । अच्छा है कि जनता ने आपको नक़द भेंट ही दी । फूलों की माला का क्या । कितनी मालाएँ पहनेगा आदमी और फिर उनका करेगा क्या ? बिना बात इधर-उधर फेंकेगा । उससे कचरा फ़ैलने के और पैसे के अपव्यय के अलावा और क्या होगा । हमारे हिसाब से तो श्रद्धा का यह नक़द तरीका ही ज़्यादा ठीक है ।

लोग अपने खर्चे से माला पहनते हैं और दिखाते ऐसा हैं कि जनता के इस स्वागत से वे नम्रता से झुके जा रहे हैं । माला गले में पहुँचने से पहले ही वे उसे रोककर या तो पास खड़े किसी चमचे को पकड़ा देते हैं या जनता की तरफ उछाल देते हैं । पर आपने जिस शान से सिर उठा कर लोगों की श्रद्धा को स्वीकार किया वह भी काबिले तारीफ़ था । क्योंकि यह सच्ची और अपने सत्कर्मों से कमाई हुई श्रद्धा थी । लोग कुछ भी कहें हम आपकी इस अदा से बहुत प्रभावित और खुश हैं । लोग तो पता नहीं किस-किस से, कहाँ-कहाँ छुप कर, क्या-क्या ले लेते हैं । न देने वाले को मज़ा आता है और न ही लेने वाले को । और जब सीडी बन जाती है तो सफ़ाई देते फिरते हैं । आपकी यह पारदर्शिता इस भ्रष्ट लोकतंत्र में अनुकरणीय है । पर लोग न तो इतने पाक-साफ़ है और न ही इतने साहसी ।

लोगों ने पहले तो कहा कि माला पंद्रह लाख की थी, फिर कहा अठारह लाख की और अब बता रहे हैं कि पाँच करोड़ की । अब उनसे कोई पूछने वाला हो कि भई, यह काम तो दिन के उजाले में ढोल बजा-बजा कर हुआ था आ जाते और गिन लेते, किसने मना किया था । अगर कोई टेक्स बनता है तो ले जाते, किसने रोका था । पर कोई सामने तो आए । अब इतना बड़ा प्रदेश है, इतने श्रद्धालु हैं तो ऐसे काम तो चलते ही रहेंगे । चुनाव तो सभी को लड़ना है । चुनाव लड़ना कोई खेल-तमाशा है क्या ? पाँच करोड़ तो पाँच एम.पी. के चुनावों में ही खर्च हो जाएगा ।

आपके लिए तो यह रुटीन काम है । आपने सारी आलोचनाओं को सहज भाव से लिया । न गुस्सा किया और न ही इस प्रकार के जन-सम्मान से आप को अभिमान ही हुआ । अगर हमारे साथ ऐसा हुआ होता तो हमारी तो बची हुई सारी उम्र भगवान का भजन करने की बजाय इन नोटों को गिनते-गिनते ही बीत जाती । हो सकता है कि पागल भी हो जाते । हमें तो छठे वेतन आयोग का जो ६०% एरियर मिला है, उसमें से सरकार ने पहले ही स्रोत पर दस प्रतिशत काट लिया । अब रिफंड लेने के लिए हमसे तो हिसाब ही नहीं बन पा रहा है । धन को सम्भालना और उससे आपने दिमाग को प्रभावित न होने देना सब के बस का नहीं है ।

इस सन्दर्भ में एक किस्सा सुनाना चाहते हैं । किसी साधारण आदमी की एक बहुत बड़ी लाटरी लग गई । लाटरी वालों को लगा कि कहीं इतनी रकम मिलने से इस को हार्ट अटेक न हो जाए सो उन्होंने एक डाक्टर से कहा कि वह उसे तरीके से और धीरे-धीरे बताए । डाक्टर ने उसके पास जाकर कहा- यदि तुम्हारी दस हज़ार की लाटरी लग जाए तो क्या करोगे । उस आदमी ने खर्चे का हिसाब बता दिया । धीरे-धीरे डाक्टर रकम बढ़ता गया और अंत में उसने जब कहा कि यदि बीस लाख की लाटरी लग जाए तो ? वह व्यक्ति बोर हो चुका था सो बोला- आधे आपको दे दूँगा । यह सुनकर डाक्टर का हार्ट फेल हो गया ।

तुलसी दास जी ने कहा है- 'मोह न नारि नारि के रूपा' । और तिस पर आप तो साक्षात् माया हैं तो फिर 'माया' से प्रभावित होने का तो प्रश्न ही नहीं है । यह तो साधारण पुरुषों की समस्या है कि वे माया के पीछे भागते हैं और उससे उनका दिमाग ख़राब हो जाता है । आपका सब कुछ तो जनता की भलाई के लिए ही तो काम आएगा । संत लोग तो जानते हैं कि खाली हाथ आना है और खाली हाथ जाना है । हमने देखा कि मैसूर के महाराजा का शुद्ध सोने का सिंहासन अब महल में लोगों के दर्शन के लिए रखा हुआ है । वे उसे कोई आपने साथ थोड़े ही ले गए । बिना बात ही सोने के कठोर सिंहासन बैठ कर कष्ट उठाया । इससे तो रूई की गद्दी ज़्यादा आरामदायक रहती पर क्या करें, राजा थे, सो मन न होते हुए भी बैठना पड़ा सोने के कठोर सिंहासन पर ।

लोग पता नहीं क्यों ईर्ष्या करते हैं । हमें तो साइकिल पर बैठते हुए भी डर लगता है और आपको प्लेन में उड़ना पड़ता है इस आतंकवादी ज़माने में । रेशमी वस्त्र और गहने क्या कोई आरामदायक होते हैं ? हम तो घड़ी भी नहीं पहनते और न ही हाथ में अँगूठी या गले में चेन पहनते हैं । बड़ी परेशानी होती है । सादे सूती वस्त्रों में ही सुविधा रहती है । महापुरुष और महान महिलाओं को जनता के आनंद के लिए सब कुछ लादना पड़ता है । लोग जयललिता के जूतों और साड़ियों की गिनती तो करते रहते हैं पर कोई यह नहीं देखता कि क्या वे एक साथ दो जोड़ी जूते पहन सकती हैं ? गरमी में भी सारे दिन बेचारी बुलेट प्रूफ जेकेट पहने रहती हैं ।

और कौन अपने साथ क्या ले जाता है ? हम जैसे लोग तो दुनिया के लिए कुछ भी छोड़ कर नहीं जाते । जो कुछ होता है वह मरने के बाद अपने ही बच्चों के पास चला जाता है । बाल-बच्चे वालों के लिए यह संतोष तो रहता है कि भले ही हम अपने साथ कुछ नहीं ले जा रहे हैं पर जो कुछ छोड़ना पड़ रहा है वह अपनों के पास ही रहेगा । आप जैसे बड़े लोगों की तो सारी चीजें मरने के बाद संग्रहालय में रख दी जाती हैं । ऐसे में क्या तो माया जोड़ना और क्या संग्रह करना । यह तो वास्तव में सच्चा और निस्वार्थ सेवा-कार्य है जो कि सबके बस का नहीं होता । हमारे लिए तो बिलकुल भी नहीं ।

लोग कुछ भी कहें पर आप हमारी तो सच्ची श्रद्धा स्वीकार कीजिए ।

१९-३-२०१०

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Jhootha Sach

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