शिया धर्म-गुरु मौलाना ज़नाब क़ल्बे जवाद,
इलाहबाद ।
आदाब अर्ज़ । जिस तरह से अंग्रेजी वाले हिन्दी के शब्दों की हत्या कर देते हैं- छपरा (बिहार) को न्यूज में छापरा पढ़ जाते हैं और तनिक भी नहीं शरमाते । गलत हिंदी बोलना अच्छी अंग्रेजी का प्रमाण माना जाता है । उर्दू में वही हमारे साथ होता है । यूँ तो सोहबत के कारण हम थोड़ी-बहुत उर्दू समझ लेते हैं पर 'नुक्ते' के मामले में मार खा जाते हैं । उर्दू में 'नुक्ता' बहुत माने रखता है । कहते हैं कि 'नुक्ते' के चक्कर में 'ख़ुदा' 'ज़ुदा' हो जाता है । वैसे यह भी सच है कि आजकल लोगों को 'खुदा' से ज़्यादा 'ख़ुदाई' को खोद-खोद कर माल-मत्ता निकालने की ज़्यादा फ़िक्र रहती है । स्वामी लोग भी 'सत्यं' की बजाय 'शिवं' की खोज 'सुन्दरीं' के कपड़ों में खोजने में ज़्यादा रुचि रखते हैं । चर्चों के पादरियों पर भी इसी तरह की 'खोजों' के हजारों मामले दुनिया में चल रहे हैं ।
तो बात नुक्ते की चल रही थी । 'नुक्ते' के साथ 'चीनी' भी अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है । हमें भी इस 'नुक्ता-चीनी' सेबहुत परेशानी है । एक बार हमें लखनऊ जाने का मौका मिला । एक मुशायरे में पहुँच गए और लोगों ने पढ़ने के लिए कह दिया । और जैसा कि हमने बताया कि हम नुक्ते के मामले में कच्चे हैं । सो हुआ यह कि हमने एक शे'र पढ़ा । लोग बार-बार मुक़र्रर-मुक़र्रर कहते रहे । हम तो निहाल । अंत में परेशान होकर हमने कहा- हज़रात, यह ठीक है कि आपको हमारा मतला बहुत पसंद आया पर हम ग़ज़ल पूरी करना चाहते हैं और आप हैं कि हमें मतले से आगे नहीं बढ़ने दे रहे हैं । वे कहने लगे- बात यह नहीं है । जब तक आप 'ज़ाम' का नुक्ता हटाकर उसे 'जाम' नही पढेंगे तब तक हम मुक़र्रर कहते रहेंगे । सो यह रहा हमारा नुक्ते का अनुभव । रही बात चीनी की सो एक तो हम चीनी के भावों से परेशान हैं और दूसरे चीनी सेना की सीमा पर होने वाली कुचरनियों से परेशान हैं, इसलिए 'चीनी कम' ही हो तो ठीक है ।
हमने आप का १३ मार्च का बयान एक हिन्दी अखबार में पढ़ा । उसमें आपका नाम कल्बेजव्वाद लिखा था । यूँ तो अगर हम उसी तरह से भी आपको संबोधित कर देते तो यह गलती अख़बार वाले की ही मानी जाती पर हम कोई रिस्क नहीं लेना चाहते । एक बार किसी क्लर्क ने किसी निमंत्रण पत्र पर प्रियंका गाँधी का पति-पक्ष वाला सरनेम गलत टाइप कर दिया तो अखबार में समाचार छप गया और हो सकता है कि उससे एक्सप्लेनेशन भी पूछ गया हो । अगर हम आप का नाम गलत लिख दें तो आप हमसे न पूछ कर यदि हमारे ख़िलाफ़ फतवा ही जारी कर दें तो हम तो कहीं के नहीं रहेंगे । सलमान रुश्दी को तो ब्रिटेन ने शरण दे रखी है पर हमें तो बचाने वाला कोई नहीं होगा । वैसे भी लेखक का फ़र्ज़ है कि पूरी जानकारी करके लिखे । ऐसे ही दुविधा के क्षणों के लिए हमने उर्दू की एक डिक्शनरी रख रखी है ।
हमने उस डिक्शनरी में 'कल्बे' शब्द देखा सो नहीं मिला । दो और शब्द मिले- एक तो बिना नुक्ते वाला 'कल्ब', जिसका अर्थ था 'कुत्ता' जो कि आपके नाम से संबंधित नहीं हो सकता । दूसरा मिला नुक्ते वाला 'क़ल्ब' जिसका अर्थ है- हृदय । यह हमें ठीक लगा । इसके बाद देखा 'जव्वाद' । हमें डिक्शनरी में 'जव्वाद' नहीं मिला, मिला 'जवाद', जिसका अर्थ था 'उदार' । हमें ये ही दोनों अर्थ ठीक लगे । इस प्रकार हमने आपके नाम अर्थ निकाला है - 'उदार-हृदय' । ठीक है, 'धर्मगुरु' ही उदार नहीं होगा तो कौन होगा ।
आपने महिला-आरक्षण के बारे में अपनी राय व्यक्त की कि 'महिलाएँ बच्चे पालें, राजनीति न करें' । हम तो इससे सौ फीसदी सहमत हैं पर लोग हैं कि बिना सोचे समझे उबल पड़े और न जाने क्या-क्या प्रतिक्रियाएँ देने लगे। अब इनसे कोई पूछने वाला हो कि भाई, यदि बच्चे पालना औरतों का कर्तव्य नहीं होता तो भगवान बच्चे पैदा करने का काम ऐच्छिक बना देता । मियाँ-बीवी दोनों मिलकर फैसला कर लेते और जिसके लिए भी तय पाया जाता वही बच्चे पैदा कर लेता । कोई शिकायत नहीं करता कि औरत ही बच्चे पैदा क्यों करे, आदमी क्यों नहीं । यह उसका धर्म है । अब पैदा करे वही उसको पाले भी । और फिर बच्चा माँ के साथ ही रहना चाहता है, दूध भी माँ ही पिला सकती है । डाक्टर भी कहते हैं कि बच्चे को छः महीने तक माँ का दूध मिलना चाहिए । अब मान लीजिये किसी महिला नेत्री को बच्चा हो गया तो क्या देश का काम छः महीने तक रुका रहेगा ? जहाँ आरक्षण की ज़रूरत है वहाँ कोई भी भला आदमी विरोध नहीं करता । सब जानते हैं कि पुरुष महिलाओं का बाथरूम यूज कर सकते है पर महिलाएँ खड़े होकर यूज करने वाला पुरुषों का बाथ रूम यूज नहीं कर सकतीं । अब यह भगवान का किया हुआ आरक्षण है तो इसमें किसी को विरोध भी नहीं है ।
ज़नाब, जब बकरे को काटा जाता है तो कोई भी बकरी यह नहीं कहती कि इनकी जगह मुझे काट लो । मज़े से दाना खाती रहती है ।
गुरु तो हम भी रहे हैं पर आपकी तरह धर्म-गुरु नहीं । वैसे गुरुओं की हालत आजकल कोई अच्छी नहीं है । आपके पास तो खैर फतवे का अधिकार भी है और जब तक जिंदा रहेंगे तब तक कुर्सी पर रहेंगे पर हमें तो इस सरकार ने साठ का होने के बाद एक दिन का समय भी नहीं दिया । भाई लोग एक छाता और टार्च भेंट में देकर घर छोड़ गए और कह दिया कल से स्कूल मत आना । हमारी भी कोई नहीं सुनता और हमें नहीं लगता कि आपकी बात पर भी नेता बनने की उत्सुक महिलाएँ ज़्यादा गौर करेंगी ।
हमने तो अभी से खाना बनाने की ट्रेनिंग लेनी शुरु कर दी है । वैसे हमारा एक सुझाव है कि आप सरकार से यह आग्रह करें कि जिसकी भी बीवी एक बार सांसद चुनी जाए उसके पति और उसके एक अटेंडेंट को ज़िंदगी भर संसद की कैंटीन में मुफ़्त खाना खाने और दिल्ली में रहने की सुविधा मिलेगी । अगर हम में से किसी की भी बीवी सांसद बन गई तो दोनों भाई मज़े से दिल्ली में रहेंगे और सांस्कृतिक कार्यक्रम देखा करेंगे । अपनी सीनियर सिटीजन बन चुकी बीवियाँ करती रहें नेतागिरी ।
१६-३-२०१०
पोस्ट पसंद आई तो मित्र बनिए (क्लिक करें)
(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach
धांसू... जव्वाद तो फिर भी ठीक है. एक जगह तो जल्लाद लिखा देखा था टिप्पणी में.
ReplyDeleteहर बार की तरह एक साफ़ सुथरा शानदार व्यंग्य
ReplyDelete