Mar 22, 2010
'पंच मकार' से 'पंच सकार' तक
वाम-मार्गी साधना में 'पंच मकार' का बड़ा महत्व है । ये पंच मकार हैं- मांस, मुद्रा, मैथुन, मद्य और मत्स्य । भले ही लोग वाम-मार्गियों की कितनी ही आलोचना करें पर क्या वाम , क्या दक्षिण और क्या मध्यमार्गी- सारे के सारे पंच मकार की साधना कर रहे हैं । मुद्रा चाहे भारत की हो या अमरीका-योरप की, सभी उसके पीछे भाग रहे हैं । मद्य से किसी को परहेज़ नहीं है । सरकार की दया से स्कूल, मंदिर-मस्जिद, अस्पताल सभी के पास मद्य सरलता से उपलब्ध है, भले ही साफ पानी न मिले । जिन मुद्राओं में सारे दिन फिल्मों और टीवी में नृत्य दिखाए जा रहे हैं वे कपड़ों समेत मैथुन से कम नहीं हैं । मांस खाने से किसे परहेज़ है- चींटी से लेकर हाथी तक जिसका भी मिल जाए । मौका मिले तो चलते-फिरते आदमी को खा जाएँ । और जहाँ तक मत्स्य मतलब कि मछली की बात है तो सब मछलियाँ ही फँसा रहे हैं । नेता जातिवाद, आरक्षण, मुफ़्त बिजली, झूठे आश्वासनों का चारा लगा कर मछलियाँ फँसा रहे हैं । अध्यापक क्लास में पढ़ाने की बजाय ट्यूशन की मछलियाँ पकड़ने में अधिक विश्वास करते हैं । डाक्टर अस्पताल ड्यूटी करने नहीं बल्कि अपने प्राइवेट क्लीनिक के लिए मरीज़ रूपी मछलियाँ फँसाने जाते हैं ।
पंच मकार की साधना रूप बदलती है पर चलती हर युग और काल में । आजकल इस पंच मकार में कुछ और अंग जुड़ गए है जैसे- माला, मंच, माइक, मार्केट, मीडिया और मनी । इन मकारों में 'मक्कारी' सब में शामिल है । हमें तो लगता है कि पहले ये 'पंच-मक्कार' ही थे बाद में भाषा के रूप-परिवर्तन के सिद्धांत के अनुसार मुख-सुख के लिए पंच-मकार हो गए । इन पाँचों में माला आदि बिंदु है । माला के मज़े भी हैं तो ख़तरे भी । जहाँ तक खुशबू की बात है तो ठीक है, पर मान लो कभी फूलों के साथ मधुमक्खी भी आ जाए और काट ले, लोग समझेंगे कि आप माला पहन कर फूल कर कुप्पा हो रहे हैं और आप अन्दर ही अन्दर दर्द से मरे जा रहे होते हैं ।
यूँ तो माला विवाह से लेकर शव-यात्रा तक सभी अवसरों पर चलती है । चमचों से लेकर भक्त तक सभी अपने-अपने 'स्वार्थ-सिद्धि-कर्ता' के नाम की माला जपते हैं । सच्चे संत हमेशा ही किसी भी तरह की माला से घबराते थे । कबीर जी ने तो साफ कहा है-
माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर ॥
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुख मांहि ।
मनुआ तो चहुँ दिसि फिरे, यह तो सुमिरन नांहि ॥
पर लोग हैं कि मन को भी नहीं फिराते और मनकों को रगड़-रगड़ कर घिसना भी नहीं छोड़ते । कबीर ने माला से बचने में ही सारी ताकत लगा दी । और उनके अनुयायी, माला को उनकी बता कर, बनारस में उनके चौरे पर जाने वालों भक्तों के सिर से छुआ कर पैसे माँगते हैं । भक्त की श्रद्धा, भावना तथा आराध्य की करतूतों के अनुसार माला फूलों, नोटों से लेकर जूतों तक किसी प्रकार की हो सकती है । कई मक्कार तो जूतों की माला पहन कर भी इतने चर्चित हो जाते हैं कि बाद में फूलों और नोटों की माला तक पहुँच जाते हैं । कभी भक्त अपनी श्रद्धा के अनुसार पहनाते हैं पर आज लोकतंत्र में अपनी इमेज बनाने के लिए लोग आपने पैसे देकर माला पहनते हैं । जैसे कि लोग पैसे देकर पुरस्कार खरीदते हैं । बहुत सी संस्थाएँ हैं जो पैसे लेकर अभिनन्दन करवाती हैं, उपाधियाँ देती हैं, कई विश्विद्यालय तो डाक्टरेट भी दे देते हैं ।
नए मकार आने से भी पुराने मकारों का महत्व काम नहीं हुआ है । माला से महिमा बढ़ती है । इस महिमा को मीडिया प्रसारित और प्रचारित करता है । इससे इमेज बनती है । इमेज बनने से चुनाव में टिकट मिलता है । टिकट मिलने से आदमी जनसेवक बन सकते है । जनसेवक बनने से कमाई के अनेक रास्ते खुलते हैं । कमाई से फिर सारे मकार हासिल हो जाते हैं । क्या मद्य, क्या मैथुन, क्या माँस, क्या मुद्रा और क्या मत्स्य ।
मनी के बिना कोई भी मकार प्राप्त नहीं किया जा सकता इसलिए मनी, माला से प्रारम्भ होने वाली साधना का चरमोत्कर्ष है । मनी में मन शामिल है । यह मन ही आदमी को भगाता है । तभी कबीर ने कहा है-
मन मूरख, मन आलसी, मन चंचल, मन चोर ।
मन के मते न चालिए, पलक-पलक मन और ॥
जो भी अपना स्वार्थ साधना चाहता है वह सबसे पहले किसी के मन पर कब्ज़ा करता है उसके बाद तो मन अपने आप ही रास्ते ढूँढ़ लेता है । सारा मार्केट आपके मन को ही ललचाता है, मीडिया उसकी सहायता करता है और मानुस उसके चक्कर में आ जाता है । आदमी एक काल्पनिक यश, सुख के पीछे भागते-भागते मर जाता है । जितनी भूख उतना अन्न, जितनी प्यास उतना पानी, जितना बड़ा शरीर उतनी ज़मीन और तन ढँकने भर को कपड़ा- उसके बाद तो सब मन का हवाई मामला है । जब सारी शक्तियाँ थक जाती हैं तब समझ में आता है पर तब तक समय निकल चुका होता है ।
अभी तो मालाओं और रैलियों को गिनीज बुक में दर्ज़ करवाने का मौसम चल रहा है । पर मौसम बेईमान होता है और पता नहीं कब और किस रूप में बदल जाए । जब इस मौसम का 'पञ्च सकार चूर्ण '* असर करता है तो सारे 'पञ्च मकार' अधोमार्ग से बहिर्गमन कर जाते हैं । इसके बाद भी छुटकारा मिल जाए तो भगवान की मेहरबानी समझना चाहिए कि वह आपको संभलने का एक और अवसर दे रहा है ।
* एक आयुर्वेदिक चूर्ण जो कब्ज़ दूर करने के लिए दिया जाता है ।
१९-३-२०१०
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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
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Jhootha Sach
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