Mar 19, 2010

मन चंगा तो कठौती में गंगा


कपिल सिबल जी,
नमस्कार । एक कपिल मुनि का उल्लेख पुराणों में आता है जिन्होंने सगर के साठ हज़ार पुत्रों को भस्म कर दिया था । गलती दोनों तरफ़ से थी । सगर के पुत्रों ने मुनि का अपमान किया । पर सगर के पुत्रों की भी उतनी गलती नहीं थी क्योंकि उन्होंनें मुनि के आश्रम में अश्वमेध के घोड़े को बँधे देखा और मान लिया कि मुनि ने ही घोड़ा चुराया है । पर चूँकि मुनि समाधि में थे सो उन्हें पता ही नहीं चला कि कब और कौन घोड़ा वहाँ बाँध गया । तभी गाँधीजी ने कहा था कि सच्चे और सीधे व्यक्ति को अधिक सावधान रहना चाहिए । सगर के साथ हज़ार पुत्रों की श्राप से मृत्यु हुई थी इसलिए उनकी मुक्ति नहीं हुई । जब भगीरथ किसी तरह से गंगा लाया तो उनकी मुक्ति हुई ।

आप सोच रहे होंगे कि हम आपको यह किस्सा क्यों सुना रहे हैं । १६ मार्च २०१० को एक खबर छपी है कि आप इस भारत के नए भागीरथ हैं और अमरीका और योरप से शिक्षा की गंगा भारत में ला रहे हैं । ला क्या रहे हैं समझिए कि बस आपकी सच्ची भक्ति के प्रताप से इस कठौते में गंगा अपने आप चल कर आ रही है । पहले अज्ञान के अन्धकार से मुक्ति पाने के लिए भारत के विद्यार्थियों को योरप जाना पड़ता था । गाँधी, नेहरू, सावरकर सभी को ज्ञान प्राप्त करने के लिए इंग्लैण्ड जाना पड़ा । अगर उस समय आप जैसा कोई दूरदर्शी और देश का हित चाहने वाला होता तो वहाँ के कालेजों को यही ले आता तो जाने कितने गाँधी और नेहरू इस देश में और तैयार हो जाते । खैर, देर आयद दुरुस्त आयद ।

जब भारत में कोकाकोला, पिज्जा, बर्गर और भी न जाने कितनी जीवनोपयोगी चीजें आ गई है तो फिर शिक्षा भी क्यों नहीं । इन खाद्य पदार्थों को खाने से भारत के बच्चों की बुद्धि इतनी तेज़ हो गई है कि अब उनकी ज्ञान पिपासा शांत करना भारत के बस का नहीं रह गया है । जैसे खाने-पीने की चीजों में सब कुछ भारत का है- खाने वाले, बनाने वाले, कच्चा माल, बस वे तो अपने अद्भुत ज्ञान के बदले में केवल मुनाफा भर अपने देश ले जाएँगे । अब शिक्षा में भी पढ़ने वाले, पढ़ाने वाले इस देश के, इमारत बनाने वाले और कच्चा माल भारत का बस वे तो अपने ट्रेडमार्क का पैसा वसूल करेंगे । क्या यह मेड बाई यू.एस.ए. अर्थात उल्हास नगर सिन्धी एसोसिएशन जैसा झाँसा तो नहीं है । जब लोग नकली नोट नहीं पहचान पाते, कोई फरार अपराधी नेपाल से आकर यहाँ सांसद बन जाता है और हम नहीं पकड़ पाते तो भारत की शिक्षा का स्तर ऊँचा उठाने वाले इन लोगों की असलियत कैसे पहचान पाएँगे ।

फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि विदेशी चीजों में कोई तो खास बात है वरना एक डालर छियालीस रूपए और एक यूरो सत्तर रुपये के बराबर होता है । अगर कुछ दम होता तो ज्यादा नहीं तो एक रूपया दो डालर के बराबर तो होता । आधा लीटर दूध आठ रूपए में आ जाता है जब कि इतने ही कोकाकोला के लिए बाईस रूपए देने पड़ते हैं । आखिर कोई तो बात होगी ना वरना दुनिया इतनी बावली थोड़े ही है । कोकाकोला पीने से कहा जाता है कि 'जो चाहो हो जाए' पर छाछ राबड़ी पीने से अब तक क्या हो गया, बताइये । वहाँ एक मज़दूर को भी न्यूनतम मज़दूरी पाँच डालर प्रति घंटे मिलती है जो कि दो सौ रुपये के बराबर होती है । एक दिन में पाँच घंटे भी काम करे तो एक हज़ार रुपये तो कमा ही लेगा जब कि अपने यहाँ एक हज़ार रुपये महीने में मास्टर मिल जाता है । सो क्वालिटी की बात है,साहब ।

अन्य क्षेत्रों में भी फ़र्क देखा जा सकता है । इंग्लैण्ड में पढ़े नेहरू जी इतने साल प्रधान मंत्री रह गए पर यहाँ पढ़े शास्त्री जी, चन्द्र शेखर, चरण सिंह और देवेगौडा से साल दो साल भी नहीं निकाले गए । हमारे ज़माने में ग्रेज्यूएशन करने में कम से कम चौदह साल तो लगते ही थे । अब तो प्ले ग्रुप, नर्सरी, लोअर केजी, अपर केजी, फिर कहीं पहली क्लास शुरु होती है । इसके बाद पंद्रह साल कम से काम और लगते हैं । सो भी तब जब कि लगातार पास होते चले जाएँ । और अमरीका में दसवीं पास होने पर भी ग्रेजूएशन कहा जाता है । यहाँ बैंगलोर में हमारे एक परिचित हैं । पैसे वाले हैं । उनका पोता किसी अमेरिकी पैटर्न वाली स्कूल में जाता है । एक साल पहले प्ले ग्रुप में गया था । कल जब हमने अपने परिचित से मिलने का प्रोग्राम बनाया तो वह बोला- कल तो नहीं, मुझे अपने पोते के ग्रेजूएशन फंक्शन में जाना है । पोते की उम्र है सवा तीन साल । मतलब कि हमने बाईस बरस ग्रेजूएशन करने में यूँ ही लगाए । आप-हम अगर आज के ज़माने में अमरीकी पद्धति से पढ़ते तो सवा तीन साल की उम्र में ही ग्रेज्युएशन हो जाता । सो यह है साहब, विदेशी ठप्पे का कमाल । ज़ल्दी कीजिए ।

बाहर वाले जब यहीं आने लग जाएँगे तो अब आस्ट्रेलिया की तरह भारतीय विद्यार्थियों पर नस्लवादी हमले नहीं होंगे । यह बात और है कि अपना ही कोई दादा टाइप भारतीय छात्र रेगिंग करके किसी भले बच्चे को मार डाले या आत्महत्या करने के लिए विवश कर दे । बाहर वाले से मरने की बजाय अपने ही किसी भाई से मरना ज्यादा कष्ट नहीं देता । वैसे जब आस्ट्रेलिया वाला मामला उछला तो पता चला कि वहाँ भी अपने भारत की तरह दो कमरों में ही कालेज चल रहे हैं । जोगी जी ने तो छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों विश्वविद्यालयों को स्वीकृति दे दी थी सो एक-एक कमरे में ही विश्वविद्यालय खुल गए । वैसे देखा जाए तो पढ़ने के लिए कोई मकान की ज़रूरत थोड़े ही होती है । पढ़नेवाला तो कहीं भी पढ़ लेता है । लोगों ने सड़क के बिजली के खम्भे के नीचे बैठ कर ही पढ़ाई कर ली । लिंकन भी बचपन में सड़क के किनारे बैठ कर ही पढ़े थे ।

और आपने भी पढ़ा होगा कि आस्ट्रेलिया में कई भारतीय छात्र हजामत करने का कोर्स करने के लिए गए हैं । अब यह भी कोई पढ़ाई है जिसके लिए कोई विदेश जाए । यह काम तो वे अपने यहाँ रह कर और भी अच्छी तरह से कर सकते हैं । कितने लोग जनसेवा के नाम पर जनता की हज़ामत बना रहे हैं । सारे देश को गंजा कर दिया । न जंगल में पेड़ छोड़े, न खानों मे खनिज पदार्थ, न नदियों में पानी । अब आस्ट्रेलिया वाले इतने बावले तो हैं नहीं कि उन्हें हजामत करना सिखा कर अपनी ही हजामत बनवाएँ । उन्होंने साफ़ साफ़ कह दिया है कि जूते-लात खाकर किसी तरह कोर्स पूरा करो और वापस अपने देश जाकर अपने ही लोगों की हज़ामत करो । अच्छा है, अब वे विदेशी तरीके से हमारे देश की हजामत करेंगे । वही उस्तरा और वही नाई, वही पुरानी कुर्सी । हज़ामत तो बनवानी ही है तो क्यों न किसी नए स्टाइल से बने ।

कभी-कभी यह सुनने-पढ़ने में आता है कि भारत में पढ़ कर गए विद्यार्थियों की ओबामा तक ने प्रशंसा की है । अपनी सरकार में उन्हें स्थान दिया है । अब भी बहुत से भारत में पढ़े हुए शिक्षक अमरीका और योरप में पढ़ा रहे हैं । पर लगता है कि यह झूठ है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आप क्यों बाहर की कालेजों को यहाँ आने की अनुमति देते । कुछ तो विशेषता होती है वरना यूँ ही कोई आपकी तरह दीवाना नहीं होता ।

कुछ ज्ञानी लोग कहते है कि विदेशी गू में भी खुशबू आती है । पता नहीं साहब, सूँघने वाले जानें ।

चलिए, छोड़िए इन बातों को । अब हमें और आपको कौन सा पढ़ना-पढ़ाना है । पढ़ने वाले जानें, पढ़ाने और पढ़वानेवाले जानें । अपना तो बस इस महान कार्य के लिए इतिहास में नाम दर्ज़ हो जाए । किन अक्षरों में हो यह तो दर्ज़ करने वाले जानें । आप तो एक चुटकला सुनिए । एक सज्जन जब भी अपने काम से बाहर जाते तो गली में बच्चे खेलते-कूदते मिलते । उन्हें पता नहीं बच्चों से क्यों चिढ़ होती थी । वे बच्चों से कोई न कोई उल्टा-सीधा प्रश्न पूछते । बच्चे ज़वाब नहीं दे पाते तो वे कहते- अरे, सारे दिन खेलते रहोगे, कुछ पढ़ोगे नहीं तो कैसे बता पाओगे । एक दिन बच्चों ने उनसे ही एक प्रश्न पूछ लिया- अंकल यह रामलाल कौन है । अंकल ने कहा- पता नहीं । तो बच्चेबोले- अंकल घर पर रहोगे तो पता चलेगा ना कि यह रामलाल कौन है । सो आप जब अमरीका की तरफ देखते रहेंगे तो कैसे पता चलेगा कि भारत में भी कुछ है । कभी भारत की तरफ भी देखने का समय निकालिए ।

वैसे आपके नाम में 'बल' भी जुड़ा हुआ है सो क्या पता कुछ पराक्रम भी दिखा ही दें । अभी तो कुछ दिखा नहीं । हमने भी इस दिशा में सोचना शुरु कर दिया है । बहुत दिन हो गए वही रोटी खाते-खाते । अब हमने पत्नी से कह दिया है कि आगे से हमें पीने के लिए पानी नहीं वाटर दिया करो । अब रोटी को ब्रेड कहेंगे । जब से यह परिवर्तन किया है हमें अपने अन्दर कुछ परिवर्तन नज़र आने लग गया है । लोग कहते हैं कि नाम में क्या है पर हम कहते हैं कि जो कुछ है सो नाम में ही है । अभी तक हम अपने ब्राह्मण नाम के बल पर ही सारे कष्टों को सह गए वरना आरक्षण के इस समय और सहारा ही क्या था ।

१७-३-२०१०

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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन ।
Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication.
Jhootha Sach

5 comments:

  1. Sir,
    1.Yes minimum wage is 5$ hour but you get a cup of coffee in 2$, a burger in 5$ , a meal not less than 10$. Monthly house rent is not less than 800$(1 BHK).
    2. When a lot of young students are going to US/UK/Australia for higher studies , why not let them come to India ?
    3. Tell me a invention done in Indian Universities ? Yes Please include elite IIT's and IIM's also.
    4. How many patents IIT's have ? Compare to any US University !

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  2. हर बार की तरह बहुत सटीक व्यंग्य. आपने लिखा की "पढ़नेवाला तो कहीं भी पढ़ लेता है । लोगों ने सड़क के बिजली के खम्भे के नीचे बैठ कर ही पढ़ाई कर ली" इसीलिए लल्लू ने चरवाह स्कूल भी खोलने का प्रयास किया था, भैस और अक्ल दोनों घास चार लेंगी

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  3. ashish, try this article if you don't get satire:
    http://getahead.rediff.com/report/2010/mar/18/careers-education-philip-altbach-foreign-schools-cant-solve-Indias-problems.htm

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  4. प्रिय भावेश आप ने जिस भाव से लिखा है उसे समझ रहा हूँ | यह एक हास्य और व्यंग लेख है |
    हममें प्रतिभा है पर हम उसे न तो प्रत्साहन दे रहे हैं और न ही स्वीकार कर रहे हैं |
    आजकल शिक्षा एक बहुत बड़ा व्यवसाय बन गया है इसलिए जहाँ तहाँ से दुकानदार आ रहे हैं, इसका शिक्षा से कोई संबंध नहीं है |
    आमंत्रित करने वाले भी किसी राष्ट्रीय हित के लिए ऐसा नहीं कर रहे हैं |
    जो यहाँ आ रहे हैं वे भी यहाँ किसी बड़े उद्देश्य के लिए नहीं बल्कि किसी न किसी तरह से पैसा कमाने के लिए आ रहे हैं |
    यहाँ भी कुछ समय से शिक्षा का व्यवसायीकरण हो रहा है और उससे भी डिग्रियों के अलावा कोई खास नहीं हो रहा है , कोई बड़ी उपलब्धियां नहीं हो रही हैं |
    मैं इस कदम में कोई राष्ट्रीय और शैक्षिक चमत्कार की आशा नहीं देख रहा हूँ |
    यह भी कोकाकोला और पिज्जा बेचने से ज्यादा कुछ सिद्ध नहीं होगा |

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  5. आदरणीय जोशी जी,
    मैं आपकी बात से पूर्णत सहमत हूँ की विदेशी जो शिक्षा का व्यापार करने भारत आ रहे है इससे देश का कोई खास भला होने वाला नहीं. ये व्यवसाय अन्य देशो में भी फल फूल रहा है. मसलन ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन के कई विश्व विद्यालय आज एशिया में सिंगापुर, हाँग कांग आदि देशो में अपनी कॉलेज खोल कर व्यवसाय कर रहे है. ये केवल ऊँची दुकान और फीका पकवान वाली संस्थाएं है जो केवल अपनी branding करती है और उसी की खाती है.
    खुशी हो अगर ये कालेज विद्यार्थियों में कुछ Soft Skills develop कर सके. पर चूँकि इनमे भी राजनीति और राजनेताओ का पूरा दखल रहेगा इसलिए ये कुछ भी सार्थक कर पाए इसकी उम्मींद कम ही है. जो अच्छे विद्यार्थी होंगे वो अपने बूते पर ही मुकाम हासिल कर लेंगे और ये कॉलेजे केवल अपनी कमाई करेंगी.

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