पहले आज की तरह डिग्रियाँ नहीं होती थीं । सत्संग ही काफी होता था । संगति से ही गुण-दोष आते थे । तभी नचिकेता को सारा ज्ञान देने के बाद भी यमराज ने कहा कि तुम श्रेष्ठ व्यक्तियों की संगति में इस ज्ञान का अभ्यास करो । मतलब कि ज्ञान, कर्म के बाद ही सिद्ध होता था ।
आज कुछ नहीं चाहिए । बस एक सर्टिफिकेट होना चाहिए । सर्टिफिकेट है तो आप बीमार हें । नहीं तो भले ही आप मर जाएँ पर न तो अधिकारी मानेगा कि आप को मेडिकल लीव दी जा सकती है और न ही अदालत मानेगी कि आप बीमार हैं और आपको जेल भेजने की बजाय अस्पताल में आराम फरमाने की इज़ाज़त दी जाए । तभी जैसे ही किसी नेता के गिरफ्तार होने की नौबत आती है तो झट से कोई न कोई डाक्टर यह प्रमाणित कर देता है कि इन श्रीमान को ये चालीस बीमारियाँ हैं । पहले यही पर्याप्त होता था कि आप किसी अच्छे गुरु के शिष्य हैं ।
पर अब तो भले ही नकली सर्टिफिकेट हो पर हो जिससे कि आप मरीज़ से फीस झटक सकें और दवाइयाँ लिख कर केमिस्ट से कमीशन खा सकें । आपको गरीब होने के लिए भी सर्टिफिकेट चाहिए । भले ही आप पक्के मकान में रह रहे हैं, आपके पास कार है या आपका कोई धंधा चल रहा पर सर्टिफिकेट है तो आप गरीबी की रेखा से नीचे हैं और आराम से बी.पी.एल. कार्ड से सस्ता किरासिन, अनाज ला सकते हैं । किसी भी सरकारी अस्पताल में इलाज करवा सकते हैं । अपने बच्चे के लिए फीस माफ़ी और छात्रवृत्ति प्राप्त कर सकते हैं । गरीबी का सर्टिफिकेट पाने के लिए गरीबी नहीं, जाति-विशेष या फिर ऊँचा जुगाड़ चाहिए ।
खैर, ये सर्टिफिकेट तो अपना घरेलू मामला है । पर अब हमें जिस सर्टिफिकेट की आवश्यकता है वह यहाँ का कोई अधिकारी नहीं दे सकता और न ही इस बारे में कोई नेता मदद नहीं कर सकता । यह सर्टिफिकेट तो हमें दूसरे देशों से आने वाले खिलाड़ियों और अधिकारियों से चाहिए जो राष्ट्र मंडल देशों से अक्टूबर २०१० में आ रहे हैं । यह सर्टिफिकेट पैसों से भी हासिल नहीं किया जा सकता । यह तो खेलों के दौरान दिल्ली में होने वाले लोगों के साझे प्रयत्न से ही मिल सकता है । इस सन्दर्भ में दिल्ली सरकार ने कुछ दिशा निर्देश जारी किए हैं । जब तक ये खेल चलते हैं तब तक दिल्ली में होने वालों को अपने थूकने और मूतने पर कंट्रोल करना पड़ेगा ।
सर्टिफिकेट की यह समस्या हमारे लिए ही नहीं है । ऐसी नौबत तो अमरीका जैसे देश के सामने भी आई थी । जब अटलांटा में ओलम्पिक खेल हुए थे तो वहाँ रहने वाले बेघर और गरीब लोगों को बसों में भरकर पता नहीं कहाँ ले जाकर छोड़ दिया । जब पहली बार हमारे यहाँ एशियाड हुआ था तो हम इतने विकसित देश नहीं हुए थे । हम में अपने अनुसार जीने की हिम्मत थी पर अब बात दूसरी है । १९८२ तक भी हम कुछ प्रगति कर चुके थे सो एशियाड के समय हमने उन सभी रास्तों में टिन की चद्दरें लगवा दी थीं जिधर से खिलाड़ी अपने होटलों या फ्लेटों से स्टेडियम जा सकते थे, जिससे कि वे हमारी झुग्गी-झोंपड़ियों के न देख सकें और हमें विकसित मानें । पर अब तो बाकायदा सर्टिफिकेट का मामला आ गया है । सो शीला दीक्षित ही क्या चिदंबरम जी भी कह रहे हैं कि दिल्ली वालों को सभ्यता सीखनी चाहिए और चाहे जहाँ थूकने और मूतने जैसे आदिम और नेचुरल काम सबके सामने नहीं करने चाहिएँ ।
दूसरों से सर्टिफिकेट लेने के चक्कर में लोगों के थूक, मूत और हगना सब बंद हो जाएँगे । पर ये देश भक्त यह क्यों नहीं समझते कि भाई सबके गुर्दे इतने मज़बूत नहीं होते । बड़े-बड़े नेताओं के एयर कंडीशंड रथ और वाहन तो हैं नहीं कि उनमें सारी सुविधाएँ हों । यह तो आम आदमी का मामला है । अब ये हाज़तें तो ऐसी हैं नहीं कि अलार्म की तरह निश्चित समय पर ही बजें । मौत की तरह कहीं भी और कभी भी आ सकती हैं । इन्हें नहीं रोका जा सकता तभी तो इन्हें 'नेचुरल काल' कहा गया है । काल पर किसका बस है ।
सड़क के किनारे इन हाज़तों को रवाँ करने से इतनी इज्ज़त ख़राब नहीं होगी जितनी कि इन्हें कपड़ों में ही निबटाने से होगी । भाई, अभी यदि दिल्ली स्वर्ग हो गई हो तो पता नहीं । वैसे हम भी दिल्ली में सोलह साल रहे हैं । यह बात और है कि बारह बरस में घूरे के भी दिन फिरते हैं पर हमारे दिल्ली में सोलह साल रहने पर भी दिन नहीं फिरे । एक सामान्य आदमी कितनी देर तक हाज़त रोक सकता है । ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे तक । तो दिल्ली में कम से कम हर आधे किलोमीटर पर हगने, मूतने और थूकने की व्यवस्था होनी चाहिए । यहाँ हम पेचिश या डाइबिटीज के मरीजों की बात नहीं कर रहे हैं और न ही ज़र्दे का पान खाकर थूकने के लिए मज़बूर लोगों की । वैसे बड़े आदमी तो सड़क ही क्या संसद तक में ही थूक उछालते रहते हैं और उन्हें कोई असभ्य नहीं कहता । सारी सभ्यता का ठेका साधनहीन, साधारण आदमी को दे रखा है ।
इसके लिए हम सरकार को यही सुझाव दे सकते हैं कि मोबाइल शौचालय की व्यवस्था की जाए । इससे काफी आमदनी भी हो सकती । सुलभ शौचालय में तो दो-तीन रूपए लगते हैं । पर राजधानी का आदमी सड़क पर कपड़े ख़राब होने के डर से सौ-पचास रूपए एक बार हगने या मूतने के दे देगा । यदि किसी विदेशी को सड़क पर ऐसी नौबत आ गई तो और भी मोटी कमाई हो सकती है वह भी विदेशी मुद्रा में । उद्योग मंत्री या वित्त मंत्री आमदनी बढ़ाने वाले के नए वेंचर के बारे में सोच सकते हैं । ब्रिटेन की एक एयरलाइन के किसी बड़े अधिकारी ने आय बढ़ाने का सुझाव दिया था कि प्लेन में पेशाब करने का भी अतिरिक्त चार्ज किया जाना चाहिए ।
हमारी तरफ से तो शीला जी और चिदंबरम जी को विदेशियों से सभ्य होने का सर्टिफिकेट लेने में कोई परेशानी नहीं आएगी । वैसे हम कभी-कभी सोचते हैं कि सुविधा के अभाव में, मज़बूरी में कहीं थूकना, मूतना, हगना बड़ी असभ्यता है या फिर किसी देश की आस्थाओं, आदर्शों और धर्म का अपमान करना, अपने यहाँ पढ़ने आने वाले बच्चों पर हमले करना या यहाँ के संस्कारों के खिलाफ नंगई फ़ैलाना ? वैसे भी दुनिया के सबसे सभ्य कहलाने वाले देश ब्रिटेन - जिसकी साम्राज्यवाद के रूप में की गई सेवाओं की स्मृति स्वरूप ये कामनवेल्थ गेम हो रहे हैं - उसकी सभ्यता को इस देश ने बहुत झेला है । वे भारतीयों को कुत्ते के समान मानते थे तभी कई खास जगहों पर लिखा रहता था- डोग्स एंड इंडियंस आर नोट अलाउड । वे हमें ज़मीन पर हगने वाला काला आदमी कहते थे । हो सकता है कि उन पर गुरुत्वाकर्षण का नियम लागू नहीं होता ।
२०-३-२०१०
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Jhootha Sach
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