Jan 26, 2024

गणतंत्र दिवस की बस


गणतंत्र दिवस की बस


आज तोताराम सुबह चाय के समय नहीं आया । हम भी बरामदे में नहीं गए । कमरे में ही बैठे थे । 

व्यस्त थे, बिना किसी सार्थक काम के । काम भी क्या ? अपने फोन से बधाई के मेसेज डिलीट करना । पहले की बात और हुआ करती थी जब एक पोस्टकार्ड लिखना भी काम हुआ करता था । पोस्ट ऑफिस जाना, पचास पैसे खर्च करना, लिखना फिर डाक में डालना । और दोनों तरफ से इसके प्रभाव और पहुँच के लिए आठ-दस दिन का इंतजार । अब तो तकनीक के कारण हाल यह है कि फ्री में दो चार क्लिक करके सैंकड़ों लोगों के फोन में नीरस, हृदयहीन मेसेज फेंक दो ।

 

आज 26 जनवरी है । जो महाकट्टर हैं, हर समय हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण-भंगी करते रहते हैं वे तक गणतंत्र की बधाई दे रहे हैं ।जो दारू के लिए पैसे न देने पर बाप का सिर फोड़ दें, जायदाद के लिए अपने भाइयों के साथ अदालत में जिनके केस चल रहे हैं वे ‘बाप का राज बटाऊ की नाईं’ छोड़कर चल देने वाले राम का मंदिर बनने पर बधाई के संदेशों की बारिश करने में लगे हैं । कुछ तो इतने निठल्ले हैं कि रोज सुबह गुड मॉर्निंग के मेसेज भेज देते हैं । और तो और सोमवार को ‘ॐ भौमाय नमः’ मंगलवार को ‘ॐ हनुमंताय नमः’ शनिवार को ‘शनिश्चराय नमः’ जैसे मेसेज आ जाते हैं । ठीक है भाई, क्या करें ? हम शनिवार को पलटकर गुरुवार तो कर नहीं सकते । जहां तक नमस्कार करने की बात है तो हम तो सत्ता में बैठे राहू-केतुओं तक को यहीं बैठे बैठे रोज ‘नमः’ करते रहते हैं फिर भी कोई पीछा थोड़े ही छोड़ देते हैं ।

मेसेज रूपी कीचड़ को फोन से डिलीट कर रहे थे कि तोताराम ने कमरे में प्रवेश किया ।


हमने ससम्मान खटिया से उठते हुए कहा- आइए तोताराम जी, बस आपकी ही प्रतीक्षा थी ।हालांकि न तो यहाँ कोई फ्रांस का राष्ट्रपति मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित है और न ही राम मंदिर के मॉडल की झांकी फिर भी चलिए छत पर चलकर तिरंगा फहराने की रस्म अदा करें । 


तोताराम स्तब्ध होकर हमारी तरफ देखता हुआ बोला- मास्टर तू अपने उसी अबे-तबे वाले लहजे में बोल । वही ठीक है । मुझे तेरे इस सम्मानसूचक सम्बोधन से उसी तरह भय लगता है जैसे किसी नेता के हाथ जोड़े एक छोटी-मोटी भीड़ के साथ घर के दरवाजे पर आने और बड़े विनम्र भाव से झुककर प्रणाम करने से लगता है क्योंकि कुटिल लोग चीते, चोर और कमान की तरह जितना झुकते हैं उतना ही घातक वार करते हैं । 


हमने कहा- हम इतने बड़े सेवक नहीं जिससे तुझे डर लगे । हम तो चूंकि गणतंत्र दिवस है, सभी भेदों और भिन्नताओं के बावजूद सबको समान समझने और सबका सम्मान करने का दिन ।

 

बोला- तो फिर ऐसा सम्मान रोज क्यों नहीं करता ? यह क्या कि एक तरफ तो दलित आदिवासी के सिर पर पेशाब करो और फिर बदनामी के कारण वोट बैंक खिसकने का डर लगे तो किसी को भी पकड़ बुलाओ और उसके पैर धोने का नाटक करो ।खैर, तेरे साथ यह बात नहीं है । तू नेताओं जितना धूर्त और दुष्ट नहीं है । लेकिन इतना तो सच है कि तू हमेशा अपनी डेढ़ चावल की खिचड़ी अलग ही पकाता है । 15 अगस्त 2022 को जब मोदी जी ने आजादी के अमृत महोत्सव पर 13, 14 और 15 अगस्त को घर-घर तिरंगा फहराने और प्रमाणस्वरूप तिरंगे के साथ सेल्फ़ी भेजने का आदेशात्मक अनुरोध किया था तब तूने तिरंगा नहीं फहराया और आज जब सारा मोहल्ला तिरंगे की बजाय राम चित्र अंकित और एक खास तरह से कटे हुए भगवा झंडों से अटा पड़ा है, कहीं एक भी तिरंगा दिखाई नहीं दे रहा तब तेरा यह ध्वजारोहण समझ में  नहीं आता । 


हमने कहा- तोताराम, जब कुछ आरोपित होता है तो न तो वह सबका होता है और न ही सब उसमें दिल से शामिल हो सकते हैं । गणतंत्र में यही होना चाहिए कि कुछ थोपा नहीं जाए । धीरे धीरे जो सबका अपना अलग अलग है वह भी सहज भाव से सबका हो जाए ।  सब अंदर से उमगे जैसे कुएं में जल संचरित होता है, जैसे पहली बारिश में जो सोंधी गंध होती है वहक् क्या किसी खास खेत या गली-मोहल्ले की होती है । वह तो अम्बर के स्नेह-जल के लिए धरती की प्यास के साथ उमंग की खुशबू होती है ।  यह क्या कि ऊपर से कोई आदेश दे और हम बिना सोचे समझे उसका हुक्म मानें। किसी के हुक्म से दीये जलाएं, किसी के हुक्म से ताली-थाली बजायें । जब जिस रंग का कहें, उस रंग का झण्डा फहराएं ।क्या किसी नागरिक का, किसी गण का अपना कोई रंग नहीं होता ? 


आज भी तो 22 जनवरी 2024 के ‘मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा’ दिवस की तरह इस लोक की साझी विरासत और संघर्ष के सुफल का उत्सव है ।उत्सव संकोच, नहीं विस्तार का शुभ लग्न होता है ।  क्या होली, दीवाली, ईद, क्रिसमस, स्वाधीनता दिवस, गणतंत्र दिवस  हम सब में समान और सहज रूप से सहज उल्लास नहीं भर सकते ? क्या 15 अगस्त 1947 को किसी आदेश के तहत हमने तिरंगा फहराया था ? तब भी कुछ विघ्नसंतोषी लोगों ने तिरंगे को अशुभ बताया था । क्या हम भारतीय गणतंत्र के इस ‘अमृत वर्ष’ के शुभारंभ में , 75 वर्षों के साथ-संग के बाद भी गण, राष्ट्र, संविधान और उसमें निहित समस्त ‘लोगों’ की समता, बंधुत्व और न्याय का स्वप्न नहीं देख सकते ?  

क्या हम तिरंगे में समाहित इस देश की पुरातन और नवीन संस्कृति की आशा-आकांक्षाओं के रंग नहीं देख सकते ? एक सामान्य पहचान के तहत अलग अलग रंग की झंडियाँ हमारे तिरंगे में आत्मा की तरह व्याप्त श्वेत रंग में अवस्थित चक्र की तरह सबके कल्याण की दिशा में क्यों गतिशील नहीं हो सकती ? क्या सांझी गतिशीलता के साथ उल्लसित नहीं हो सकते ?  धर्म अकेले की मुक्ति का विधान बताता है जबकि गणतंत्र सामूहिक मुक्ति का पर्व है । 

तोताराम ने ताली बजाई और बोला- वाह मास्टर, वाह ! क्या अद्भुत भाषण है । ठीक वैसा ही जैसे मोदी जी ने राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा के बाद राष्ट्र से प्रतिष्ठित विशिष्ट जनों के सामने दिया था । लेकिन यहाँ कौन है तेरे इस भारत के स्वप्न द्रष्टा ? इस समय तो ‘राम नाम जपना, पराया माल अपना’ और ‘मुख में राम, बगल में छुरी’ वाली बेला चल रही है । जैसे भी, जो भी झण्डा, जो भी नारा, जो भी रंग काम बना सके, अपना लो । ठीक है, तेरा कोई कुत्सित मकसद नहीं है, स्वार्थ नहीं है फिर भी लोक के साथ चलने में कभी-कभी ताली-थाली बजा लेने, किसी खास नाम-रंग का झण्डा फहरा लेने, दीये जला लेने में तेरा क्या जाता है ? और बहुत बार तो लोग झंडे, दीये आदि फ्री में दे जाते हैं । 


हमने कहा- तोताराम, बात पैसे की नहीं है । हमारा कोई खास खर्चा भी नहीं है । अपने पैसे से भी बहुत से सांस्कृतिक कार्यक्रम कर सकते हैं । हम समाज से अलग नहीं हैं लेकिन जिस तरह से हमें धर्म और भगवान के नाम पर भेड़ बनाकर हाँका जा रहा है वह हमें पसंद नहीं है ।हम 75 साल से हनुमान चालीसा और 70 साल से रामचरितमानस पढ़ रहे हैं और ये लफंगे उजड्ड छोरे हमें धर्म सिखाएंगे, जबरदस्ती ‘जयश्री राम’ के नारे लगवाएंगे, यह  हमें सहन नहीं होता । कल को धौंस जमाकर कुछ और करने के लिए मजबूर करेंगे । 

हम ऐसे किसी के कहने से न तो बस रोकेंगे और न ही चलाएंगे ।  


तोताराम ने ठहाका लगाया, बोला- मास्टर, लगता है तेरा दिमाग कुछ गड़बड़ हो गया है । बात चल रही है झंडों, नारों, धर्म और संस्कृति की और तू बीच में यह बस कहाँ से ले आया । तुझे तो साइकल भी चलनी नहीं आती और आज सीधे बस दौड़ाना चाहता है । भक्तों की भीड़ उमड़ रही है कहीं भिड़ा मत देना । 

हमने कहा- हमें तो आजकल की इस धार्मिक कुचरणी से एक बस यात्रा का बहुत पुराना किस्सा याद आगया । बात 1965 की है। राजस्थान में नई नई रोडवेज सेवा शुरू हुई थी । उन दिनों जयपुर के चांदपोल दरवाजे के बाहर से बसें चला करती थीं । हम उन दिनों सवाईमाधोपुर की सीमेंट फेक्टरी के स्कूल में मास्टर थे । रात की ट्रेन से जयपुर पहुंचे और वहाँ से पिलानी वाली बस पकड़ी । हमारे साथ हमारे गाँव का ही एक युवक भी था । फेक्टरी  टाउनशिप में किसी होटल में काम किया करता था । बहुत चंचल और शैतान था ।  

बस जयपुर से निकली । जहां बस रोकनी होती कंडक्टर बस में जहां भी होता आवाज लगाता- रोक दे । और ड्राइवर रोक देता । जैसे ही सवारियाँ उतर-चढ़ जातीं वह फिर आवाज लगाता- चलो, चलो। और ड्राइवर चल देता । 

अब जहां भी कोई स्टॉप आता तो हमारे साथ का वह युवक जो ड्राइवर की सीट के पीछे ही बैठा था, बोल पड़ता- रोक दे । जैसे ही ड्राइवर चलने को होता वह फिर बोल देता-चलो, चलो । 

दो बार तो ड्राइवर ने कुछ नहीं कहा लेकिन जैसे ही तीसरी बार उसने कहा- चलो, चलो तो ड्राइवर को गुस्सा आ गया बोला- तेरे बाप का नौकर हूँ क्या ? नहीं चलता । 

और बस से बाहर निकल कर खड़ा हो गया । 

बड़ी मुश्किल से लोगों ने ड्राइवर को मनाया। युवक को सबसे पीछे वाली सीट पर भेज दिया गया, कुछ भी न बोलने की हिदायत के साथ । 


सो यह जो जनता को नचाने की मनोवैज्ञानिकता है वह बहुत दिन नहीं चलेगी । डर बहुत दिन नहीं चलता। ज़िंदगी प्रेम, समझ, सहमति और आपसी लिहाज व सम्मान से चलती है । 


 


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(c) सर्वाधिकार सुरक्षित - रमेश जोशी । प्रकाशित या प्रकाशनाधीन । Ramesh Joshi. All rights reserved. All material is either published or under publication. Jhootha Sach

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