Mar 27, 2010

नेकी कर दरिया में डाल



जैसे ही चौपटनगरी के आजीवन महाराजा श्री चौपटादित्य सप्ताहांत में संसद के कुँए से सत्य के शव को निकाल कर ठिकाने लगाने के लिए चले तो उस शव में स्थित बेताल ने कहा- राजन, तुम सप्ताहांत में मौज-मज़ा करने की बजाय पता नहीं क्यों इस शव को ठिकाने लगने के लिए चल पड़ते हो । जब कि तुम अच्छी तरह से जानते हो यह सत्य बड़ा चीमड़ है और किसी न किसी बहाने तुम्हारे चंगुल से निकल जाता है । आज फिर तुम इसे उठा कर चल पड़े हो । मैं तुम्हारी और कोई मदद तो कर नहीं सकता पर कम से कम तुम्हारा मन बहलाने और श्रम भुलाने के लिए तो कुछ कर ही सकता हूँ । तो सुनो एक कहानी ।

परोपकारपुरी नाम की एक नगरी थी । वहाँ के अधिकतर लोग परोपकार में ही लगे रहते थे । कुछ ही लोग ऐसे थे जो माया-मोह में फँसे हुए थे और खेती, नौकरी, मज़दूरी जैसे तुच्छ काम किया करते थे । अधिकतर लोग परोपकारी थे और लोगों की भलाई के लिए तरह-तरह के काम किया करते थे । उनमें सबसे महत्वपूर्ण काम था चंदा इकठ्ठा करना । वे कभी जागरण के लिए चंदा इकठ्ठा करते तो कभी भंडारे के लिए । कभी बाढ़-पीड़ितों के लिए चन्दा करते । यदि किसी कारण से बाढ़ नहीं आती तो वे सूखा पीड़ितों के लिए चंदा करते । यदि दुर्भाग्य से परोपकारपुरी में कोई समस्या नहीं होती तो वे किसी और देश को किसी संकट से बचने के लिए चंदा करते । यदि मनुष्यों की समस्याएँ नहीं मिलती तो वे किसी पशु-पक्षी की लुप्त होती नस्ल को बचाने के पुण्य काम में लग जाते । और कुछ भी नहीं मिलता तो परोपकरापुरी की अस्मिता की रक्षा के लिए ही चंदा करने लग जाते । मतलब कि वे किसी भी हालत में चंदा करना नहीं छोड़ते ।

ये सभी परोपकारी लोग खाते-पीते और बड़े लोग होते थे । ये किसी न किसी परोपकार के लिए, जैसा भी मौका होता, कभी कारों में तो कभी पैदल चंदा करने के लिए निकलते थे । इनकी इस परोपकार भावना का ऐसा प्रभाव पड़ा कि विद्यार्थी स्कूल-कालेज छोड़कर चंदा करने के लिए निकल पड़ते, सरकारी कर्मचारी दफ्तर के समय में ही परोपकार के लिए चंदा करने के लिए निकल पड़ते थे । और सब मिलकर शाम को 8 पी.एम. पर '8 पी.एम.' के साथ अपने परोपकार को सेलेब्रेट करते थे । कुल मिला कर परोपकारपुरी में चारों तरफ परोपकार की ही धूम थी ।

एक बार ऐसा हुआ कि परोपकारपुरी में बाढ़ आ गई । ऐसे में तो किसी के लिए भी परोपकार को छोड़ कर कोई दूसरा काम ही नहीं रह गया था । एक दिन ऐसा हुआ कि कुछ विद्यार्थियों ने एक व्यक्ति को घेर लिया और उसे परोपकार के लिए मज़बूर करने लगे । पहले कई देर तक इसी बात पर बहस चलती रही कि उस व्यक्ति को कितना परोपकार करना चाहिए । अंत में जब बात एक सौ रुपए पर तय पाई गई । वह व्यक्ति एक सौ रुपया देने के लिए तैयार था फिर भी उनमें पहले तू-तू, मैं-मैं होने लगी ।

हे राजन, जब वह व्यक्ति चंदा देने के लिए तैयार था और वे सेवक तो चंदा लेने के लिए ही निकले थे तो फिर क्या कारण हो सकता है कि वे तू-तू, मैं-मैं करने लगे । इस झगड़े में तुम किसकी गलती मानते हो । यदि तुमने जानते हुए भी उत्तर नहीं दिया तो तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे ।

महाराजा चौपटादित्य ने उत्तर दिया- हे बेताल, शास्त्रों में कह गया है कि नेकी कर दरिया में डाल । इस लिए चंदा देने वाले को बस चंदा दे देना चाहिए । चंदा लेने वाला यदि रसीद दे तो ठीक और न दे तो ठीक । रसीद लेकर क्या होगा । क्या भगवान को दिखाओगे । भगवान तो सब जगह है । वह सब देखता है, जानता है कि आपने कब, कितना चंदा दिया है । और फिर परोपकारी लोगों पर शंका करना भी पाप है । वह नादान व्यक्ति पक्की रसीद ही नहीं माँग रहा था बल्कि अकाउंट पेयी चेक से पैसा दे रहा था । अगर चेक से पैसा लेगें तो हिसाब रखना पड़ेगा । और जब सब जानते हैं कि 'बही लिख-लिख के क्या होगा, यहीं सब कुछ लुटाना है' । तो इसमें उस चेक से चंदा देने की ज़िद करने वाले की ही गलती है ।

महाराजा चौपटादित्य के इस उत्तर को सुनकर बेताल की खोपड़ी के टुकड़े-टुकड़े हो गए ।

२७-८-२००९

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Jhootha Sach

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